SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला अध्याय : जैन संघ का इतिहास २५ जानकारी मिलती है)। इससे भी राजघरानों में महावीर का प्रभाव सिद्ध होता है। उन्होंने उग्र, भोग, राजन्य, ज्ञातृ और कौरव कुल के अनेक क्षत्रियों को अपने श्रमणधर्म में दीक्षित किया था। स्त्रियों में राजा दधिवाहन की पुत्री चंदनबाला का नाम प्रमुख है जो महावीर भगवान की प्रथम शिष्या और भिक्षुणी संघ की गणिनी कहलाई। महारानियों में जयन्तो, मृगावती, अंगारवती और काली, तथा राजकुमारों में मेघकुमार, नंदिषेण, अभयकुमार आदि के नाम मुख्य हैं। श्रावक-श्राविकाओं में शंख, शतक तथा सुलसा और रेवती आदि उल्लेखनीय हैं। - महावीर का निर्ग्रन्थ धर्म । महावीर ने पार्श्वनाथ के निर्ग्रन्थ धर्म की परम्परा को आगे बढ़ाया । चतुर्विध संघ की व्यवस्था उन्होंने सुदृढ़ की, अहिंसा पर जोर दिया, और पार्श्वनाथ के चातुर्याम में ब्रह्मचर्य नाम का पांचवां व्रत जोड़ा। संयम, तप और त्याग का अधिक दृढ़ता से पालन करने का उपदेश देते हुए उन्होंने अचेलत्व को मुख्य बताया। उन्होंने अनेकांतवाद का उपदेश दिया, चारों वर्गों को समानता को मुख्य माना, तथा निग्रन्थ प्रवचन को साधारण जनता तक पहुँचाने के लिए अर्धमागधी में उपदेश दिया। ___ जैनधर्म बिहार में फूला-फला, वहाँ से उत्तर भारत में फैला, फिर राजपूताना, गुजरात और काठियावाड़ होते हुए उसने दक्षिण भारत में प्रवेश किया। इस बीच में जैनसंघ में अनेक उत्थान-पतन हुए, अनेक संकटापन्न परिस्थितियों से इसे गुजरना पड़ा। लेकिन बौद्धसंघ की भांति अपनी जन्मभूमि से कभी यह दूर नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यही है कि इस धर्म के अनुयायो अपने नियम और सिद्धान्तों से दृढ़ता के साथ जकड़े रहे । प्रोफेसर जैकोबी के शब्दों में “यद्यपि साधु और गृहस्थ जीवन से सम्बन्ध रखने वाले कितने ही कम महत्वपूर्ण नियम खंडित होकर अनुपयोगी बन गये, फिर भी, आज भी जैन धर्मावलंबियों का जीवन वस्तुतः वही है जो आज से २००० वर्ष पहले था ।" १. जार्ल शान्टियर, कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑव इण्डिया, पृ० १६६ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy