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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
'उज्जयिनी में वज्रस्वामी के पादमूल में बैठकर उन्होंने नौ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया था ।
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इसके सिवाय, जैनधर्म के पुरस्कर्ताओं में आर्य श्याम, आर्य समुद्र, आर्य मंगु, नागहस्ति, पादलिप्त, स्कंदिल, नागार्जुन, भूतदत्त, देवर्धिगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। उत्तरवर्ती आचार्यों में उमास्वाति, कुंदकुंद, मल्लवादी, सिद्धसेन दिवाकर, समंतभद्र, पूज्यपाद, हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती और कलिकालसज्ञ हेमचन्द्र मुख्य हैं । हेमचन्द्र १२ वीं - शताब्दी के सुप्रसिद्ध आचार्य थे जिनका उपदेशामृत सुनकर गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल ने जैन धर्म अंगीकार किया था ।
राजघरानों में महावीर का प्रभाव
जैन ग्रंथों में १८ गणराजाओं में प्रमुख वैशाली के राजा चेटक, राजगृह के राजसिंह, श्रेणिक ( बिंबसार), चंपा के राजा कूणिक (अजातशत्रु), कौशांबी के राजा उदयन, चंपा के राजा दधिवाहन, उज्जैन के राजा प्रद्योत वीतिभय के राजा उद्रायण, पाटलिपुत्र के सम्राट् चन्द्रगुप्त और उज्जैनी के सम्राट् संप्रति आदि का उल्लेख आता है, जो निर्ग्रन्थ श्रमणों के परम उपासक माने गये हैं; इनमें से उद्रायण आदि राजाओं को महावीर ने श्रमण-धर्म में दीक्षित किया था । महावीर भगवान् के नाना चेटक की सात कन्याओं में से प्रभावती का विवाह राजा उद्रायण के साथ, पद्मावती का शतानीक के साथ, शिवा का प्रद्योत के साथ, ज्येष्ठा का महावीर के भ्राता नन्दिवर्धन के साथ और चेलना का श्रेणिक बिंबसार के साथ हुआ था ( यद्यपि इन राजाओं की ऐतिहासिकता के संबंध में बहुत कम
१. वही ।
२. श्रार्यसमुद्र र श्रार्यमंगु ने शूर्पारक में बिहार किया था, व्यवहारभाष्य ६.२४१, पृ० ४३ ।
३. मथुरा में सुभिक्षा प्राप्त होने पर भी आर्यमंगु श्राहार का कोई प्रतिबंघ नहीं रखते थे, इसलिए आवश्यक निर्युक्ति में उन्हें पार्श्वस्थ कहा गया है, जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० २०७ । श्रार्य मंतु और नागहस्ति का नाम दिगंबर आचार्यों की परम्परा में भी आता है, इन्होंने कषायप्रामृत का व्याख्यान किया ।