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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ पांचवां खण्ड
में भी अनेक साधुओं और तपस्वियों का उल्लेख किया गया है । ससरक्ख ( सरजस्क ) साधुओं को उडुंडंग और बोडिय (बोटिक = दिगम्बर जैन ) के साथ गिनाया गया है । ये तीनों ही किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते थे और पाणितल में भोजन करते थे ।' सरजस्क साधु विद्या-मन्त्र आदि में भी कुशल होते थे ।" जैसे वर्षा ऋतु में chitaरिक मिट्टी, और बोटिक गोबर और नमक का संग्रह करते थे, वैसे ही ये लोग राख का संग्रह करके रखते थे । अस्थिसरजस्कों के संबंध में कहा है कि वे लोग बहुत-सा भोजन कर लेते, और बहुत गंदे रहते थे ।
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दसोरिय ( उदगशौकरिक ) शुचिवादी भी कहे जाते थे । यदि उन्हें कोई स्पर्श कर देता तो वे ६४ बार स्नान करते थे । एक बार किसी बैल की मृत्यु हो जाने पर कर्मकारों ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या किया जाय ? शुचिवादी ने उत्तर दिया कि बैल को वहां से हटा कर उस स्थान को जल से धो दिया जाये । तत्पश्चात् चांडालों ने मरे हुए बैल की खाल निकालने की आज्ञा मांगो | लेकिन शुचिवादी ने नहीं दो । उसने स्वयं कर्मकारों को ही यह काम करने के लिये कहा । उसने बैल के मांस, चर्म, सींग, हड्डी, और स्नायु को अलग-अलग उपयोग में लाने का आदेश दिया । * कोई दगसोयरिय पूर्व देश से आकर पाखंडि 'गर्भ मथुरा नगरी के नारायण कोष्ठ में ठहरा । तीन दिन के उपवास के पश्चात् उसने गोबर खाने का ढोंग किया । स्त्री शब्द वह कभी मुह से न निकालता और मौन धारण किये रहता । लोग उसकी तपस्या से इतने प्रभावित थे कि वे उसे सुबह हो भरपूर अन्न-पान आदि लाकर दे देते । उसी बीच एक दूसरा दगसोयरिय उत्तरीय नारायण कोष्ठ में आकर रहने लगा । दोनों घूमते हुए एक-दूसरे को प्रणाम करते और एकदूसरे की प्रशंसा करते ।"
१. आचारांगचूर्णी ५, पृ० १६९ ।
२. बृहत्कल्पभाष्य १.२८१९ ।
३. वही, वृत्ति ३.४२५२ ।
४. वही ५.५८३१ ।
५. आचारांगचूणीं, पृ० २१ ।
६. पाखंड का सामान्य अर्थ है श्रमण, भिक्षु, तापस, परिव्राजक, कापालिक
अथवा पांडुरंग ।
७. आचारांग चूर्णी ५, पृ० १६३ ।