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पांचवां खण्ड ] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय उसो तरह करते हैं । ये लोग तृण और पत्तों आदि का ही भोजन करते है), गिहिधम्म ( गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर समझकर देव, अतिथि और दान आदि स्वरूप गृहस्थ धर्म को पालने वाले ), धर्मचिंतक (धर्मशास्त्र के पाठक अथवा याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों द्वारा प्रणीत धर्म-संहिताओं का चिंतन करने वाले), अविरुद्ध (विनयवादी), विरुद्ध (अक्रियावादी), वृद्ध (वृद्ध अवस्था में दोक्षा ग्रहण करने वाले । ऋषभदेव के काल में उत्पन्न होने के कारण ये सब लिंगियों में आदि कहे जाते हैं), और श्रावक (धर्मशास्त्र सुनने वाले ब्राह्मण । भरत चक्रवर्ती के समय ये लोग श्रावक कहे जाते थे, बाद में ब्राह्मण कहे जाने लगे ), दगबिइय (उदगद्वितोय-चावल को मिलाकर जल जिनका द्वितीय भोजन हो), दगतइय (उदगतृतीय), दगसत्तम ( उदकसप्तम ) और दगएक्कारस (उदकएकादस-चावल आदि दस द्रव्यों को मिलाकर जल जिनका ग्यारहवां भोजन हो)। __ अन्य प्रजित श्रमणों में कंदप्पिय ( अनेक प्रकार के हास्य करने वाले), कुक्कुइया ( कौत्कुच्यम्भू, नयन, मुख, हस्त और चरण आदि द्वारा भांडों के समान चेष्टा करने वाले ), मोहरिय ( मौखिरिक-नाना प्रकार से असंबद्ध कृत्य करने वाले), गीयरइपिय (गीतरतिप्रिय-गीतरति जिन्हें प्रिय हो), नच्चणसोल (नतनशील-नाचना जिनका स्वभाव हो), तथा अत्तक्कोसिय ( आत्मोत्कर्षिक-आत्मप्रशंसा करने वाले), परपरवाइय (परपरवादिफ-परनिंदा करने वाले ), भूइम्मिय (भूतिकार्मिक-ज्वर आदि रोगों को शान्त करने के लिए भभूत देने वाले ) और भुज्जो भुज्जो कोउयकारक (भूयः भूयः कौतुककारक सौभाग्य के लिए बार-बार स्नान आदि कराने वाले )।" . बृहत्कल्प, निशीथ और व्यवहार आदि सूत्रों की टीका-टिप्पणियों १. गावी हि समं निग्गमपवेससयणासणाइ पकरेंति । भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहाविन्ता ॥
-औपपातिकटीका, पृ० १६६ । २. औपपातिकसूत्र ३८, पृ० १६८; अनुयोगद्वारसूत्र २०, पृ. २१-अ%B ज्ञातृधर्मकथा १५, पृ० १६२-अ, और इनकी टीकाएँ।
३. औपपातिकसूत्र, वही ।
४. वही, पृ० १७१, देखिये व्याख्याप्रज्ञप्ति १.२ की टीका; प्रज्ञापना २०,१२१० ।
५. औपपातिकसूत्र ४१, पृ० १९६ ।