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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ पांचवां खण्ड
क्षणिकवाद को मानने के कारण इन्हें बौद्ध भी कहा है।' अक्रियावादियों को विरुद्ध नाम से भी उल्लिखित किया है, कारण कि उनको मान्यताएँ अन्य वादियों के विरुद्ध पड़ती हैं। इनके ८४ में भेद हैं । अ अज्ञानवादी मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान को निष्फल मानते हैं । इनके ६३ भेदों का उल्लेख मिलता है ।' विनयवादियों को अविरुद्ध नाम से भी कहा है ।" इस मत के अनुयायियों ने बाह्य क्रियाओं के स्थान पर मोक्ष प्राप्ति के लिए विनय को आवश्यक माना है । अतएव विनयवादी सुर, नृपति, र्यात, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, बकरी, गोदड़, कौआ और बगुले आदि को देखकर उन्हें प्रणाम करते हैं। इनके ३२ भेद हैं । "
१. सूत्रकृतांग १२.४-८ ।
२. अनुयोगद्वारसूत्र २०; ज्ञातृधर्मकथाटीका १५, पृ० १९४- अ; औपपातिकसूत्र ३८, पृ० १६९ ।
३. स्थानांग ( ८.६०७ ) में निम्नलिखित आठ भेद बताये हैं- एगवाई, अणेगावाई, मियवाई, णिम्मियवाई, सातवाई, समुच्छेयवाई, णिययवाई, ण संति पर लोगवाई | तुलना कीजिए दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त के वर्गीकरण के साथ; बरुआ, प्री-बुद्धिस्ट इण्डियन फिलासोफी, पृ० १६७ । बौद्धशास्त्रों में पकुधकच्चायन के सिद्धांत को अक्रियावाद कहा है, बी० सी० लाहा, हिस्टोरिकल ग्लीनिग्स, पृ० ३३ । उक्त वर्गीकरण में से पुण्य और पाप घटा देने पर, जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव और यदृच्छातः की अपेक्षा स्वतः और परतः रूप में स्वीकार करने से ८४ ( ७६×२ ) भेद होते हैं, सूत्रकृतांगटीका १.१२, पृ० २०९ । ४. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप को सत्, असत् सदसत्, अव्यक्त, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य और सदसदवक्तव्य की अपेक्षा स्वीकार करने से ६३ भेद होते हैं । इनमें सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य के जोड़ देने से ६७ भेद हो जाते हैं, वही ।
५. औपपातिक, वही; ज्ञातृधर्मकथा, वही । अंगुत्तरनिकाय ३, पृ० २७६ में अविरुद्धकों का उल्लेख है ।
६. सूत्रकृतांग १.१२.२ आदि टीका ।
७. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २३० ।
८. देवता, स्वामी, यति, पुरुष, वृद्ध पुरुष, अपने से छोटे, माता और पिता को मन, वचन, काय और दान द्वारा सम्मानित करने के कारण इसके ३२ (८x४ ) भेद बताये गये हैं, सूत्रकृतांगटीका १.१२, पृ० २०९ - अ ।