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पांचवां खण्ड ]
पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
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दोनों आजीविक मत के उपासक थे । जैनसूत्रों में गोशाल को नियतिवादी के रूप में चित्रित किया गया है, और कहा है कि गोशाल उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम को स्वीकार नहीं करते थे । '
अन्य मत-मतान्तर
जैनसूत्रों में चार प्रकार के मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख है :- - क्रियावादी, अक्रियावादो, अज्ञानवादी और विनयवादी । क्रियावादी का अर्थ है जिसमें क्रिया की प्रधानता स्वीकार की गयी हो । शीलांक के अनुसार, जो सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र के बिना केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं उन्हें क्रियावादी कहते हैं । क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, और ज्ञान के बिना क्रिया की प्रधानता मानते हैं । - क्रियावादियों के सम्बन्ध में कहा है कि जो नरक की यातनाओं से अवगत हैं, पाप के आस्रव और संवर को समझते हैं, दुख और दुख के नाश को जानते हैं, वे ही इस मत की स्थापना कर सकते हैं । क्रियावाद के १८० भेद माने गये हैं ।" अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार, प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायो है, अतएव ज्योंही किसी वस्तु का उत्पाद होता है वैसे हो वह नष्ट हो जाती है। ऐसी हालत में उसमें कोई क्रिया होने की सम्भावना नहीं रहती ।
१. देखिये ऊपर पृ० १३ । गोशाल के 'चौरासी लाख महाकल्प' आदि सिद्धान्तों का वर्णन वृद्ध आचार्यों ने भी नहीं किया, अतएव संदिग्ध होने से चूर्णांकार भी उस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिख सके, केवल शब्दों के अनुसार ही यत्किचित् लिखा है, व्याख्याप्रज्ञप्ति १५, पृ० ६७५-अ टीका ।
२. सूत्रकृतांग १.१२.१ ।
३. वही, टीका, पृ० २१८-अ ।
४. वही, १.१२, पृ० २०८, पृ० २२३; उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २३० । यह परिभाषा स्वयं जैनधर्म पर लागू होती है । तुलना कीजिए अंगुत्तरनिकाय ३.८ पृ० २६३ । यहाँ महावीर को क्रियावादी कहा गया है ।
५. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति १२.११९, पृ० २०८ - अ । जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप को काल, ईश्वर, आत्मा, नियति और स्वभाव की अपेक्षा स्वतः, परतः, तथा नित्य और अनित्य रूप में स्वीकार करने से १८० भेद (९×५x२x२ ) होते हैं, वही ।