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पांचवां खण्ड]
पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
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तथा छट्ठम छट्ट तपोकर्म द्वारा निरन्तर ऊर्ध्व बाहु करके सूर्याभिमुख आतापना-भूमि में तपश्चरण किया करता था। वह कभी घुटनों तक के जल को पैरों से चलकर पार न करता, शकट आदि में न बैठता, गंगा को मिट्टी के सिवाय अन्य किसी वस्तु का उपलेपन नहीं करता, अपने निमित्त से पकाया हुआ आहार ग्रहण न करता, दुर्भिक्ष-भक्त, कंतार-भक्त, और ग्लान-भक्त आदि भोजन स्वीकार न करता, तथा कन्द, मूल, फल, बीज और हरित काय का सेवन न करता । अम्मड अर्हन्त और अर्हन्त चैत्यों के सिवाय, अन्ययूथिक शाक्य आदि का वंदन नहीं करता था। एक बार, अम्मड के सात शिष्य ग्रीष्म ऋतु में कांपिल्यपुर से पुरिमताल विहार कर रहे थे। वे एक गहन अटवी में प्रविष्ट हुए तो उनका जल समाप्त हो गया। जब उन्हें कहीं से भी जल प्राप्त होने के लक्षण दिखायो न दिये तो उन्होंने त्रिदंड, कुंडिका, रुद्राक्ष को माला आदि को एकान्त स्थान में रक्खा, और गंगा के तट पर पहुंच, भक्तपान का त्याग करते हुए, बालुका पर पर्यकासन से पूर्वाभिमुख बैठ, अरहंत, श्रमण भगवान महावीर और अपने धर्माचार्य अम्मड परिव्राजक को स्तुति करने लगे। इस प्रकार सर्व प्राणातिपात आदि का त्याग कर, सल्लेखनापूर्वक उन्होंने शरीर का त्याग किया।
पुद्गल परिव्राजक का उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति में आता है; वे आलभिया में ठहरे हुए थे। परिव्राजकों की भांति पारिवाजिकाएँ भी श्रमण धर्म में दीक्षित होती थीं । चोक्खा पारिब्रजिका का उल्लेख किया जा चुका है। वह अन्य परिव्राजिकाओं के साथ मिथिला नगरी में परिभ्रमण किया करती थी । परिव्राजिकाएँ विद्या, मंत्र, और जड़ो-बूटी देतों तथा जंतर-मंतर करती थीं।
(५) आजीविक श्रमण __ आजीविक मत मंखलि गोशाल से पूर्व विद्यमान था; गोशाल इस मत के तीसरे तीर्थकर माने गये हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार, आजीविक मत गोशाल से ११७ वर्ष पूर्व मौजूद था। इस कथन के अनुसार गोशाल ने २२ वर्ष एणेज्जग, २१ वर्ष मल्लाराम, २० वर्ष मंडिय, १९ वर्ष रोह, १८ वर्ष भारद्वाज और १७ वर्ष अर्जुनगोयमपुत्त के शरीर में वास किया।
१. औपपातिकसूत्र ३६ आदि । २. ११.१२ । ३. वही १५ ।