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४१६ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड निवास करते तथा आचारशास्त्र और दर्शन आदि विषयों पर वादविवाद करने के लिए दूर-दूर तक पर्यटन करते ।
परिव्राजकश्रमण चार वेद, इतिहास (पुराण), निघंटु, षष्ठितंत्र, गणित, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण-शास्त्रों के विद्वान होते थे। दान-धर्म, शौच-धर्म और तीर्थस्नान का वे उपदेश करते थे। उनके मतानुसार जो कुछ भी अपवित्र होता वह जल और मिट्टी से धोने से पवित्र हो जाता है, और इस प्रकार शुद्ध देह ( चोक्ष ) और निरवद्य व्यवहार से युक्त होकर स्नान करने से स्वग को प्राप्ति होती है। इन परिव्राजकों को तालाब, नदी, पुष्करिणी, वापी आदि में स्नान करने, गाड़ी, पालकी, अश्व, हाथी आदि पर सवार होने, नट, मागध आदि का तमाशा देखने, हरित वस्तु आदि को रोंदने, स्त्री, भक्त, देश, राज और चौर कथा में संलग्न होने, तुम्बो, काष्ठ और मिट्टी के पात्रों के सिवाय बहुमूल्य पात्र धारण करने, गेरुए वस्त्र को छोड़कर विविध प्रकार के रंगीन वस्त्र पहनने, ताँबे की अंगूठी ( पवित्तिय ) को छोड़कर हार, अर्धहार, कुण्डल आदि आभूषणों को धारण करने, कर्णपूर को छोड़कर अन्य मालाएं पहनने और गंगा की मिट्टी को छोड़कर अगुरु, चन्दन आदि का शरीर पर लेप करने की मनायी है। उन्हें केवल पीने के लिए, एक मागध प्रस्थप्रमाण जल ग्रहण करने का विधान है, वह भी बहता हुआ और छन्ने से छना हुआ ( परिपूय )। इस जल को वे हाथ, पैर, थालो या चम्मच आदि धोने के उपयोग में नहीं ला सकते ।
जैनसूत्रों में चरक' (जो जूथबंध घूमते हुए भिक्षा ग्रहण करते हैं,
१. औपपातिकसूत्र ३८, पृ० १७२-७६ ।
२. चरक परिव्राजक धोई हुई भिक्षा ग्रहण करते और लंगोटी (कच्छोटक) लगाते, व्याख्याप्रज्ञप्ति १.२, पृ० ४९ । चरक आदि परिव्राजकों को कपिल मुनि के पुत्र कहा है, प्रज्ञापना २०, पृ० १२१४ । आचारांगचूर्णी ८, पृ० २६५ में जैसे उपासकों को शाक्यों का भक्त कहा है, वैसे ही सांख्यों को चरकों का भक्त कहा है । चरक आदि परिव्राजक प्रातःकाल उठकर स्कंद आदि देवताओं के गृह का परिमार्जन करके, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूप खेते, मलयगिरि, आवश्यकटीका, भाग १, पृ० ८७ । व्यवहारभाष्य भाग ४,२, पृ० २९-अ में वाद-विवाद में एक चरक द्वारा किसी क्षुल्लक के हराये जाने का उल्लेख है । बृहदारण्यक उपनिषद् में चरक का उल्लेख है।