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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ पांचवां खण्ड
ऊपर उठाकर चलने वाले ), दिसापोक्खो' ( जल से दिशाओं का सिंचन कर फल, पुष्प आदि बटोरने वाले ), बकवासी ( वल्कल धारण करने वाले), अंबुवासी ( जल में रहने वाले ), बिलवासी ( बिल में
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( ११.६ ) में हस्तिनापुर के शिव राजर्षि का उपाख्यान आता है । वे अरने राज्य का भार अपने पुत्र को सौंप कर तवा ( लोही ), लोहे की कड़ाही और कड़छा आदि उपकरण लेकर गंगा के किनारे वानप्रस्थ तपस्वियों के पास पहुँचे और उन्होंने दिशाप्रोक्षियों की दीक्षा स्वीकार कर ली । छम छट्ठ तप करते हुए दिक्चक्रवाल तप कर्म द्वारा भुजाएँ उठा कर तप में - लीन हो गये । प्रथम छह तप के पारणा के दिन वे आतापना भूमि से उतरे और वल्कल के वस्त्र धारण कर अपनी कुटिया में आये। वहाँ से बाँस के पात्र ( किटिण ) और टोकरी ( सांकायिक, भारोद्वहनयंत्र - टीका ) लेकर वे पूर्व दिशा की ओर चले । पूर्व दिशा का उदक से उन्होंने सिंचन किया, फिर पूर्व दिशा में स्थित सोम महाराजा का आह्वान कर कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज से अपनी टोकरी भर ली । तत्पश्चात् दर्भ, कुश और समिध ग्रहण कर, वृक्ष के पत्ते तोड़े और अपनी कुटिया में चले आये । यहाँ आकर वेदी को झाड़ा-पोंछा और लीप-पोतकर शुद्ध किया । फिर दर्भ, और कलश लेकर गंगा में स्नान करने के लिए चले। वहाँ स्नानपूर्वक आचमन किया, तथा देवता और पितरों को जलांजलि अर्पण कर, दर्भ और जल का कलश हाथ में ले, अपनी कुटी में आये । यहाँ दर्भ, कुश और बालू की वेदी बनायी, मंथन - काष्ठ द्वारा अरणि को घिसकर अग्नि प्रज्ज्वलित की। तत्पश्चात् अग्नि की दाहिनी ओर निम्नलिखित वस्तुएँ स्थापित कीं - सकथा ( एक उपकरण ), वल्कल, अग्निपात्र ( ठाण ), शय्या का उपकरण, कमण्डलु और दण्ड; स्वयं भी आसन ग्रहण किया । उसके पश्चात् मधु, घी और अक्षतों से अग्नि में होम किया, फिर चरु पकाया और उससे वैश्वानर देवता और अतिथि का पूजन किया, और उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण किया। फिर दूसरी बार छह तन किया । इस बार दक्षिण दिशा का सिंचन कर, यम महाराज से रक्षा के लिए प्रार्थना
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की । तीसरी बार पश्चिम दिशा में पहुँच कर वरुण महाराज की, और चौथी बार उत्तर दिशा में स्थित वैश्रमण महाराज की पूजा-उपासना की । सोमिल ब्राह्मण ने आम्र के आराम का रोपण किया, जहाँ उसने मातुलिंग, बिल्व, कपिष्ठ, चिंचा आदि बोये । फिर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की दिशाओं में जाकर तप किया, निरयावलियाओ ३, पृ० ३७ - ४५; तथा देखिये वसुदेवहिडी पृ० १७; दीघनिकाय, सिगालोववादसुत्त ।