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पांचवां खण्ड- ]
पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
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औपपातिकसूत्र में निम्नलिखित वानप्रस्थ तापस गिनाये गये हैं:होत्तिय (अग्निहोत्री ), पोत्तिय ( वस्त्रधारी ), कोत्तिय ( भूमिशायी ), जई ( यज्ञ करने वाले) सड्डूई ( श्रद्धा रखने वाले ), थालई ( अपने बर्तन भाँडे लेकर चलने वाले), हुंबरट्ठ ( कमण्डल रखने वाले; कुण्डिकाश्रमण - टीका ), दंतुक्खलिय' ( दांतों से ओखली का काम लेने वाले; फलभोजो - टीका ), उम्मज्जक' ( उन्मज्जन मात्र से स्नान करने वाले ), संमज्जक ( अनेक बार डुबकी लगा कर स्नान करने वाले), निमज्जक ( स्नान करते समय क्षणभर के लिए जल में डूबे रहने वाले ), संपक्खाल ( शरीर पर मिट्टी घिसकर स्नान करने वाले), दक्खिणकूलग ( गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले ), उत्तरकूलग ( उत्तर तट पर रहने वाले ), संखधमक ( शंख बजाकर भोजन करने वाले ), कूलधमक ( किनारे पर खड़े होकर शब्द करने वाले ), मियलुद्धय ( जानवरों का शिकार करने वाले ), हत्थितावस ' ( हाथी को मारकर बहुत समय तक भक्षण करने वाले ), उडुंडक' (दण्ड को
निर्ग्रन्थ प्रवचन में अन्यलिंग से सिद्ध माना गया है। ये ऋषि पंचाग्नि तप करके, शीत उदक का पान कर अथवा कन्दमूल फल आदि का भक्षण करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, चतुःशरणटीका ६४; सूत्रकृतांग ३.४.२, ३, ४, पृ० ४-अ- ९५ ।
१. दंतोलुखलिन् और उन्मज्जक का उल्लेख रामायण ३.६.३ में मिलता है । तुलना कीजिए दीघनिकायअट्ठकथा १, पृ० २७० ।
२. कर्णदध्ने जले स्थित्वा तपः कुर्वन् प्रवर्तते ।
उन्मज्जकः स विज्ञेयस्तापसो लोकपूजितः ॥ - अभिधानवाचस्पति ।
३. ये लोग एक वर्ष या छह महीने में अपने बागों से एक महाकाय हाथी को मार कर उससे आज विका चलाते थे । इनका कहना था कि इससे वे अन्य जीवों की रक्षा करते हैं। टीकाकार के अनुसार ये बौद्ध साधु थे, सूत्रकृतांग २,६ | ललितविस्तर, पृ० २४८ में हस्तिव्रत नाम के साधुओं का उल्लेख है । महावग्ग ६.१०.२२, पृ० २३५ में दुर्भिक्ष के समय हस्ति आदि के मांस भक्षण का उल्लेख है ।
४. उड्डंगों को बोडिय और सरक्ख ( सरजस्क ) आदि साधुओं के साथ गिना गया है । शरीर ही उनका एकमात्र परिग्रह था और अपने पाणिपुट में वे भोजन किया करते थे, आचारांगचूर्णी, ५, पृ० १६९ ।