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४०८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड का उल्लेख पहले किया जा चुका है।' राजसभा में अहंतप्रणीत धर्म को मानने वाले जैन साधुओं और बुद्धप्रणीत धर्म को माननेवाले तञ्चन्निय साधुओं में विवाद हुआ करते थे। आईक मुनि का गोशाल, शाक्यपुत्रोयों, द्विजातियों, एकदंडी साधुओं और हस्तितापसों के साथ वाद-विवाद होने का उल्लेख है। किसी राजक्षुल्लिका के किसो चरिका आदि द्वारा वाद में पराजित कर दिये जाने पर उसके क्षिप्तचित्त हो जाने की संभावना रहती थी। - इसके सिवाय, कभी किसी राजा के मन में विचार उदित होता कि तपस्वियों को रात्रिभोजन कराने से देश में शान्ति स्थापित रह सकती है, इसलिए वह उन लोगों को रात्रिभोजन कराने के अवसर को तलाश में रहता। इसी प्रकार व्यंतर देव भी साधुओं को रात्रि. भोजन कराकर प्रसन्न होते । ऐसी संकटमय स्थिति उपस्थित होने पर कहा है कि साधु को भोजन की पोटली हाथ में लेकर चुपके से इधरउधर अंधेरे में डाल देना चाहिए, या बीमार होने का बहाना बना देना चाहिए । यदि फिर भी कोई न माने तो भोजन करने के पश्चात् मुंह में उंगली डालकर वमन कर देना चाहिए।'... __कभी किसी साधु को किसो आर्या के पास कायोत्सर्ग में स्थित देखकर लोग कहने लगते कि हमने यही मनौती की थी और इससे हमारा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है। यह सोचकर वे महापशु (पुरुष) का यज्ञ करने के लिए साधु को पकड़ कर वध करने के लिए ले जाते थे। बगीचे में से फल आदि तोड़ लेने पर भी जैन साधुओं को कठोर दंड का भागी होना पड़ता था।
१. व्यवहारभाष्य ५.२७-८ । २. निशीथचूर्णी १२.४०२३ की चूर्णी । ३. सूत्रकृतांग २,६ । ४. बृहत्कल्पभाष्य ६.६१९७ ।
५. वही ४.४९६२-६६ । रात्रिभोजन के गुण और दिवाभोजन के दोषों के लिए देखिये निशीथभाष्य ११.३३६५ । रात्रिभोजन के दोषों के लिए देखिए, वही, पीठिका ४१४-१७, ४५४-५५ ।
६. व्यवहारभाष्य १, पृ० १०२-अ-१०३ । ७. बृहत्कल्पभाष्य १.६२२-२३ ।