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पांचवां खण्ड] । पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
. निर्ग्रन्थ श्रमणों का आदर्श जैनसूत्रों में कथन है कि साधु को अपने धर्म और व्रत-नियम का अत्यन्त तत्परता से पालन करना चाहिए। कहा भी है, “चिरसंचित व्रत को भग्न करने की अपेक्षा जलतो हुई अग्नि में कूद कर प्राण दे देना श्रेयस्कर है, तथा किसी भी हालत में शुद्ध कर्म करते हुए मृत्यु को शरण लेना अच्छा है, शील को खंडित कर देना नहीं लेकिन इसके साथ-साथ यह भी ध्यान देने योग्य है कि खासकर श्रमण संस्था के विकास के प्रारम्भिक काल में इस आदर्श का अक्षरशः पालन करना कुछ साधारण काम नहीं था। छेदसूत्रों में विधान है कि जैसे कोई वणिक अल्प लाभ के माल को त्यागकर अधिक लाभ वाले माल को ग्रहण करता है, उसी प्रकार साधु को चाहिए कि वह अल्प संयम का त्यागकर बहुतर संयम को ग्रहण करे । कहा भी है
"सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन संयम से भी अधिक अपनी रक्षा करनी चाहिए। जीवित रहने पर हिंसा आदि पापों से वह प्रायश्चित्त द्वारा छुटकारा पा सकता है, ऐसी दशा में वह अविरतो नहीं कहा जायेगा।"२ - ___"शरीर रूपी पर्वत से ही जलरूपी धर्म का स्रोत प्रवाहित होता है, अतएव सर्वप्रयत्न द्वारा धर्मसंयुक्त शरीर को रक्षा करे"। जिस प्रकार विधि-विधानपूर्वक मन्त्र से परिग्रहीत विष-भक्षण भी दोष उत्पन्न नहीं करता, इसी प्रकार मन्त्र, यज्ञ और जाप द्वारा विधिपूर्वक की हुई हिंसा को भी दुर्गति का कारण नहीं बताया। इस दृष्टांत द्वारा कल्प्य
१. वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतं । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो, न चापि शीलस्खलितत्य जीवितम् ॥
-वही ४.४९४९ की चूर्णी । २. सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खंतो।
मुच्चति अतिवाताओ पुणो विसोही ण ताविरती ।। भणइ य जहा
"तुम जीवंतो एयं पच्छित्तेण विसोहेहि सि, अण्णं च संजमं काहिसि ।' -निशीथचूणीपीठिका ४५१ की चूर्णी । ३. शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः । • शरीराच्छ्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ।।
-बृहत्कल्पभाष्य १.२६०० की टीका ।