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________________ ४०२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ पांचवां खण्ड सो जाते और कभी व्यापारी अपना सामान बेचकर सो जाते । कार्पाटिक और सरजस्क साधु तथा कुँवारे लोग (वंठ) यहाँ आकर विश्राम' करते । साधुओं को अपनी वसति की दिन में तीन बार देखभाल करने का आदेश है । क्योंकि संभव है कि कोई स्त्री अपने नवजात शिशु को या अकाल आदि के कारण मृत सन्तान को उपाश्रय के पास डाल जाये, या कोई किसी को मार कर या चुराये हुए धन को वहाँ रख जाये । यह भी संभव है कि कोई दृढव्रती अथवा परीषहों द्वारा पराजित साधु गले में फंदा लटका कर प्राणों को त्याग दे और फिर साधुओं को नाहक ही राजकुल में घसीटा जाये । उपाश्रय के अभाव में विशेषकर साध्वियों को बहुत कष्ट सहन करने पड़ते थे, अतएव उन्हें सभा, प्याऊ (प्रपा) अथवा देवकुल आदि आवागमन के स्थानों में ( आगमणगिह), खुले हुए स्थानों में ( वियडगिह ), घर के बाहर चबूतरे आदि स्थानों में ( वंसोमूल ) और वृक्ष के नीचे ठहरने का निषेव किया गया है । साधु के लिए विधान है कि उसे कानों से नीचे की वसति में न रहना चाहिए; इससे झुककर चलने में कुत्तेबिल्ली जननेन्द्रिय को तोड़ लेने का प्रयत्न कर सकते हैं, अथवा ऊपर सिर लगने से सांप-बिच्छू द्वारा डंसे जाने की आशंका रहती है । इसी प्रकार संस्तारक को जमीन से एक हाथ ऊपर बिछाने का विधान है, नहीं तो नीचे की ओर हाथ लटका रह जाने से सर्प आदि के चढ़ आने का भय रहता है । ' रोगजन्य कष्ट बीमार पड़ने पर साधुओं को चिकित्सा के लिए दूसरों पर हो अवलम्बित रहना पड़ता था । पहले तो चिकित्सा में कुशल साधु द्वारा ही रोगी की चिकित्सा किये जाने का विधान है, लेकिन फिर भी यदि बीमारी ठीक न हो तो किसी अच्छे वैद्य को दिखाना चाहिये । यदि ग्लान इतना अधिक बीमार हो जाय कि उसे वैद्य के घर ले जाना पड़े और मार्ग की आतापना सहन न करने के कारण, कदाचित् वह प्राण छोड़ दे तो ऐसी हालत में आक्रोशपूर्ण वचनों से वैद्य कह सकता १. ओघनिर्युक्ति २१८, पृष्ठ ८८-अ । २. बृहत्कल्पभाष्य ३.४७४५-४६ । ३. बृहत्कल्पसूत्र ३.११ तथा भाष्य 1 ४. वृहत्कल्पभाष्य ४.५६७३-७७ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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