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पांचवां खण्ड] . पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय ४०३ है-"क्या तुम लोगों ने मेरा घर श्मशान-कुटी समझ रक्खा है जो मुर्द को यहां लेकर आये हो।” तत्पश्चात् वैद्य मृतक का स्पर्श कर सचेल स्नान करता है और अपना घर गोबर से लिपवाता हैं। वैद्य के घर शकुन देखकर ही जाने का विधान है। यदि वह एक धोती (शाटक ) पहने हो, तैल की मालिश करा रहा हो, लोध्र का उबटन लगवा रहा हो, हजामत बनवा रहा हो, राख के ढेर या कूड़ो के पास खड़ा हो, आपरेशन कर रहा हो, घट या तुंबो को फोड़ रहा हो, या शिराभेद कर रहा हो तो उस समय कोई प्रश्न उससे न पूछे । हां, यदि वह शुभ आसन पर बैठा हो, प्रसन्न मुद्रा में वैद्यकशास्त्र की कोई पुस्तक पढ़ रहा हो, या किसो को चिकित्सा कर रहा हो तो धर्मलाभ पूर्वक उससे रोगी के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए। यदि वैद्य स्वयं ग्लान को देखने के लिए कहे तो उसे उपाश्रय में बलाना चाहिए । वैद्य के उपाश्रय में आने पर आचार्य आदि को उठकर ग्लान साधु को उसे दिखाना चाहिए | आचार्य को पहले वैद्य से बातचीत करना चाहिए और आसन आदि से उसे उपनिमंत्रित करना चाहिए | आवश्यकता होने पर साधुओं को वैद्य के स्नान, शयन, वस्त्र और भोजन आदि की व्यवस्था भी करनी चाहिए | यदि वैद्य अपनी दक्षिणा मांगे तो साधु ने दीक्षा लेते समय जो धन निकुंज आदि में गाड़कर रक्खा हो उससे, अथवा योनिप्राभृत की सहायता से धन उत्पन्न कर उसे देना चाहिए। यदि यह संभव न हो तो यंत्रमय हंस अथवा कपोत आदि द्वारा उपार्जित धन वैद्य को दक्षिणा के रूप में देना चाहिए। शूल उठने पर अथवा विष, विसूचिका या सर्पदष्ट से पोड़ित होने पर साधुओं को रात्रि के समय भी औषध सेवन करने का विधान है।
दुर्भिक्षजन्य उपसर्ग उन दिनों अति भयंकर दुष्काल पड़ते थे, जिससे साधुओं को नियम-विहित भिक्षा प्राप्त होना दुष्कर हो जाता था । आर्य वज्रस्वामी का उल्लेख किया जा चुका है। दुष्काल के समय मंत्र-विद्या के बल से
१. तुलना कीजिये सुश्रुत १.२६, १४-१६ आदि ।
२. बृहत्कल्पभाष्य १.१६१०-२०१३; व्यवहारभाष्य ५.८९-९०, पृ० २०; निशीथसूत्र १०.१६-३६; भाष्य २९६६-३१२२ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.२८७३-७४ ।