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________________ पांचवां खण्ड ] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय ३९९ यदि साधु किसी उन्मार्ग से जनपद में प्रवेश करते तो उन्हें वध-बंधन आदि का भागी होना पड़ता । किन्तु दर्शन और ज्ञान के प्रसार के लिए, आहार-शुद्धि के लिए, ग्लान साधु को चिकित्सा के लिए अथवा किसी आचार्य से मिलने आदि के लिए साधु वैराज्य और विरुद्ध राज्य में भी संक्रमण कर सकते थे। ऐसी दशा में नगररक्षक (आरक्खिय), श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य, अथवा राजा को अनुमति प्राप्त कर गमन करना हो उचित बताया है। कभी दो राजाओं में कलह होने पर, कोई राजा अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा द्वारा प्रतिष्ठित आचार्य का राजपुरुषों द्वारा अपहरण करा लेता था। ऐसो हालत में धनुर्वेदो साधु को पराक्रम दिखाकर आचार्य को छुड़ाने का विधान है।' राजा यदि निग्रन्थ श्रमणों के प्रति सद्भाव रखता तब तो ठोक था, लेकिन यदि वह उनसे द्वेष रखता तो साधुओं को दारुण कष्टों का सामना करना पड़ता था । यदि साधुओं ने राजा के अन्तःपुर में घर्षण किया हो, राजा अथवा अमात्य के पुत्र को दीक्षित कर लिया हो, राजभवन में साधु के वेष में धन आदि के लोभो साहसी लोग (अभिमर) घुस आये हों, साधुओं का दशन अनिष्ट समझा जाता हो, किसी साधु को किसी अविरतिका के साथ अनाचार करते देखा गया हो, तो ऐसी दशा में प्रद्विष्ट होने के कारण राजा साधुओं को देशनिकाला दे सकता है, उनका भोजन-पान बन्द कर सकता है, उनके उपकरणों का हरण कर सकता है तथा उनके चारित्र अथवा जीवन का सत्यानाश कर सकता है । ऐसी हालत में राजपुरुष भिक्षा के लिए आये हुए साधुओं को रोककर देश से बाहर कर देते हैं । भक्त-पान रोक दिये जाने पर साधुओं को रात्रि के रक्खे हुए बासी भोजन, तक्र, खली ( पिंडी ), और वायसपिंडिका आदि का आश्रय लेना पड़ता है। राजा के द्वारा वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों का अपहरण कर लिए जाने पर, देवकुल आदि में कार्याटिक साधुओं द्वारा त्यागे हुए अथवा कूड़ी आदि पर पड़े हुए वस्त्रों को ग्रहण करने का विधान है। शीत लगने पर तृणों को ओढ़ने या आग में तापने का आदेश है। रजोहरण के स्थान पर मयूरपिच्छ, और प्रस्तरण आदि के स्थान पर चर्म का उपयोग करे, पलाश के पत्तों अथवा हाथ में भोजन ग्रहण करे तथा हंसतैल आदि के उत्पादन की भाँति अवस्वापन और तालोद्धाटन आदि के प्रयोग द्वारा वस्त्र और पात्र आदि को प्राप्त करे । १. बृहत्कल्पभाष्य १.२७५५-८७ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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