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________________ पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय ३९७ पांचवां खण्ड ] उपसर्ग सहन करने पड़े थे । साधुओं को कीचड़ पार करके भी जाना पड़ता था । लत्तगपथ (थोड़ी को बड़वाला मार्ग; इस मार्ग में इतनी कीचड़ होती थो जितनो कि अलते से पैर रचाने के लिये पर्याप्त हो), खलुगमात्र ( पैर को घुंटी तक आनेवाली कीचड़), अर्धजंचामात्र, जानुमात्र और नाभि तक आनेवाली कर्दमयुक्त पथ का उल्लेख किया गया है । २ चोर डाकुओं का उपद्रव ( हृताहृतप्रकरण ) चोर डाकुओं के उपद्रव भी कुछ कम न थे। ये लोग जल और स्थल द्वारा व्यापार करने वाले सार्थवाहों को लूट लेते, साधुओं को मार डालते और साध्वियों को भगाकर ले जाते । कभी बोधिक चोर ( म्लेच्छ ) किसी आचार्य या गच्छ का वध कर डालते, संयतियों को जबर्दस्ती हर ले जाते तथा चैत्यों और उनकी सामग्री को नष्ट कर sted | इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होने पर, अपने आचार्य की रक्षा के लिए कोई वयोवृद्ध साधु गण का नेता बन जाता, और गण का आचार्य सामान्य भिक्षु का वेष धारण कर लेता ।" कभी ऐसा भी होता कि आक्रान्तिक चोर चुराये हुए वस्त्र को दिन में ही साधुओं को वापिस कर जाते, किन्तु अनाक्रांतिक चोर रात्रि के समय वस्त्रों को उपाश्रय के बाहर मूत्रस्थान ( प्रश्रवणभूमि ) में डालकर भाग जाते । यदि कभी कोई चोर सेनापति उपधि के लोभ के कारण आचार्य की हत्या करने के लिए उद्यत होता तो धनुर्वेद का अभ्यासी कोई साधु अपने भुजबल से, अथवा धर्मोपदेश देकर, या मंत्र, विद्या, चूर्ण और निमित्त आदि का प्रयोग कर उसे शान्त करता । यदि कभी अग्र भाग अथवा पृष्ठभाग में न बैठकर मध्य भाग में बैठने का विधान है, निशीथचूर्णीपीठिका १९८-६६ | १. निशीथभाष्य १२.४२१८ । २ . वही १२.४२३४ | ३. बृहत्कल्पसूत्र १.४५ तथा भाष्य । ४. निशीथचूणपीठिका २८९ की चूर्णां । ऐसे समय कहा गया है - एवं सवे असही अट्ठायमाणा ववरोवेयव्वा । ५. बृहत्कल्पभाष्य १.३००५ - ६ ; निशीथभाष्यपीठिका ३२१ । ६. बृहत्कल्पभाष्य १.३०११ । ७. वही १.३०१४ आदि ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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