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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड में स्नान कर रहा था। इस बोच में दूसरे किनारे पर साधुओं को खड़ा देख, अपनी नाव लेकर वह स्वयं उन्हें लाने चला । उधर से लौटते हुए नदी के पार पहुँचने तक राजा ने एक साधु से कोई कथा सुनाने के लिए कहा | साधु ने कथा सुनायो । राजा को कथा अच्छो लगी। बाद में राजा ने उस साधु की तलाश करवाकर उसे अपने अन्तःपुर में कथा सुनाने के लिए बुलवाया।
कभी कोई श्रमण-विद्वेषी, द्वेष के कारण, साधुओं के नाव पर आरूढ़ होने के पश्चात् उन्हें कष्ट पहुँचाने के लिए अपनी नाव को नदी के प्रवाह में या समुद्र में डाल देता था। कभी कोई नाविक साधुओं अथवा उनकी उपधि पर जल के छींटे डालता, या साधु को जल में फेंक देता। ऐसी हालत में मगर आदि जलचर जीवों और समुद्र में फिरनेवाले चोरों का उन्हें डर रहता । ___ कभी नाव में बैठे हुए यात्री नाविक से कहते कि यह साधु पात्र के समान निश्चेष्ट बैठा हुआ है जिससे नाव भारो हो गयी है, इसलिए इसका हाथ पकड़कर इसे पानी में फेंक दो। यह सुनकर साधु अपने चोवर को ठीक तरह से बांध लेता या उसे सिर पर लपेट लेता। नाव के यात्रियों से वह कहता कि आप लोग इस तरह मुझे क्यों फेंक रहे हैं, मैं स्वयं नाव से उतरा जाता हूँ। यदि वे लोग फिर भी उसकी बात न सुनकर उसे जबदस्ती पानी में धकेल हो दें, तो बिना रोष किये हुए, उसे जल को तैर कर पार कर लेना चाहिए। यदि ऐसा न कर सके तो उपधि का त्याग कर कायोत्सग करना चाहिए; नहीं तो किनारे पर पहुँचकर गीले शरीर से बैठ जाना चाहिए। यदि जल को जंघा से पार किया जा सके तो जल को आलोड़न करता हुआ न जाये; एक पांव जल में और दूसरा ऊपर रखकर जल को पार करे। यदि कदाचित् जल के प्रवाह में बह जाय तो कायोत्सर्गपूर्वक शरीर का त्याग करे। भगवान महावीर के नावारूढ़ होने पर उन्हें अनेक
१. बृहत्कल्पभाष्य ४.५६२३-२६; निशीथभाष्य १२.४२१५ । २. बृहत्कल्पभाष्य ४.५६२९-३३ ।
३. आचारांग २, ३. २, पृ० ३४७-अ आदि । श्रावस्ती की ऐरावती ( अचिरावती = राप्ती ) नदी में आधी जंघा तक जल रहता था । इस नदी को एक पैर जल में और दूसरा आकाश में रखकर पार करने का विधान है, बृहत्कल्पसूत्र ४.३३; निशीथभाष्य १२.४२२८ आदि । जैन साधु को नाव के