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पांचवां खण्ड ] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
३९५ जाते, लथा कीचड़, ऊँचे-नीचे मार्ग, गुफा और गहरे गड्डों में गिरने से वे मूर्च्छित हो जाते या उनके दर्द होने लगता; अनार्यों का डर रहता और उनको स्त्रियों द्वारा उपसर्ग किये जाने की संभावना रहती ।' . कितनी ही बार साधुओं को किसी साथे के साथ गमन करना पड़ता था। कभी सार्थ के लोग जंगलो जानवरों से रक्षा करने के लिए बाड़ लगाते, तो साधुओं को भी अपनी रक्षा के लिए सूखे कांटों की बाड़ लगानी पड़तो, अथवा सूखी लकड़ियां आदि जलाकर रक्षा करनी पड़ती। इसी प्रकार चोरों से रक्षा करने के लिए उन्हें वागाडंबर (वयणचडगर ) का आश्रय लेना पड़ता था। कभी ऐसे भी अवसर आते कि किसी महाटवी में श्वापद अथवा चोरों आदि के भय से सार्थ के लोग इधर-उधर भाग जाते और साधु मार्ग-भ्रष्ट हो जाते, अथवा वृक्ष आदि पर चढ़कर उन्हें अपनी रक्षा करनी पड़ती। ऐसी हालत में वनदेवता का आसन कम्पायमान करके मागे पूछना पड़ता। कभी भोजन आदि कम हो जाने पर सार्थ के लोगों को कंद, मूल और फल का भक्षण करना पड़ता और साधुओं से भी वे इन्हों वस्तुओं को खाने का आग्रह करते । यदि साधु भक्षण कर लेते तो ठीक, नहीं तो वे उन्हें डराने के लिए रस्सी दिखाते कि यदि हमारा साथ न दोगे तो रस्सी से लटका कर प्राण हरण कर लेंगे । अध्वगमन के उपयोगी पदार्थों में साधुओं के लिये शकर अथवा गुड़ामांश्रत केले, खजूर, सत्त अथवा पिण्याक (पिन्नी) भक्षण करने का विधान है।
नाव-गमन यदि कभी जैन श्रमणों को नाव द्वारा नदो पार करने की आवश्यकता पड़ती तो यह भी एक समस्या हो जातो। कभी अनुकम्पाशील नाव के व्यापारो, पहले से नाव पर बैठे हुए यात्रियों को उतार कर, उनकी जगह साधुओं को बैठा लेते, अथवा नदी के दूसरे किनारे पर साधुओं को देखकर वे अपनी नाव वहां ले जाते । ऐसी हालत में नाव से उतारे हुए यात्री साधुओं से द्वेष करने लगते, और उनसे बदला लेने का प्रयत्न करते। एक बार पाटलिपुत्र में मुरुंड राजा गंगा
१. बृहत्कल्पभाष्य १.८८१ । २. देखिए आवश्यकचूर्णी २, पृ० १५४।। ३. बृहत्कल्पभाष्य १.३१०३-१४; निशीथचूणीपीठिका २५५ । ४. निशीथमाष्य १६.५६८४ ।