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३९४ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड जाता था । ये लोग एक वर्ष में आठ महीने एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते रहते । जनपद-परीक्षा प्रकरण में कहा गया है कि जैन श्रमणों को नाना देशों की भाषाओं में कुशल होना चाहिए जिससे वे देश-देश के लोगों को उनकी भाषा में धर्मोपदेश दे सकें। तथा उन्हें इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए कि किस देश में किस प्रकार से धान्य आदि को उत्पत्ति होती है, और कहां बनिज-व्यापार से आजीविका चलतो है।' जनपद-विहार के समय श्रमण, विद्वान् आचार्यों के पादमूल में बैठकर सूत्रों के अर्थ का भी निश्चय कर सकते थे । लेकिन इसके लिए श्रमणों को बहुत दूर-दूर को यात्राएं करनी पड़ती थों, तथा कहने की आवश्यकता नहीं कि उन दिनों मार्ग बड़े अरक्षित और खतरे से खाली नहीं थे। मार्गजन्य कष्टों से आक्रान्त हो कितने ही साधु भोषण जंगलों में पथभ्रष्ट हो जाते, जंगलो जानवर उन्हें मारकर खा जाते, बड़े-बड़े रेगिस्तान, पहाड़ों और नदियों को उन्हें लांघना पड़ता, बर्फीले पहाड़ और कंटकाकोण दुर्गम पथों पर चलना पड़ता, चोर-डाकुओं और जंगल में रहने वाली जातियों का उपद्रव सहन करना पड़ता, तथा भोजन-पान के अभाव में अपने शरीर का त्याग करना पड़ता था । वात आदि रोग से ग्रस्त होने के कारण, साधु के घुटनों को वायु पकड़ लेती और उसकी जंघाओं में दर्द होने लगता था। कभी उपकरणों के भार से उसे चलने में कष्ट होता और बहुत से उपकरण देखकर चोर आदि पीछे लग लेते थे। कभो अत्यधिक वर्षा के कारण नदी में बाढ़ आ जाने से बहुत दिन तक मार्ग रुक जाता, और कभी जंगली हाथी मार्ग रोक कर खड़ा हो जाता था । रास्ता चलते हुए उनके पैरों में कांटे, गुठलियाँ और लकड़ी के ठूठ घुस
१. बृहत्कल्यभाष्य १.१२२६-३९ ।
२. देखिये वही १.२३९३-९४, २७३६; २८४१-२६६८ । मज्झिनिकाय २, लटुकिकोपमसुत्त, पृ० १३२ (राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी अनुवाद ) में रात्रिभोजन-त्याग का उपदेश देते हुए कहा है कि मार्ग में चोरों का डर, गड्ढे में गिरने का डर और व्यभिचारिणी स्त्रियों का डर रहता है, अतएव भिक्षु को विकालभोजन से विरत रहना चाहिये।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.३०५५-५७ ।
४. वही १.३०७३ । वर्षावास के नियमों के लिये देखिये महावग्ग ३.१.१, पृ० १४४ ।