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पांचवां खण्ड ] पहला अध्याय : श्रमण सन्प्रदाय ३६३ भोजन ), तथा मूल, कंद, फल, बीज और हरित भोजन-पान ।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन श्रमणों को संयम में स्थिर रखने के लिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियमों का उल्लेख किया गया है, और संयमपालन में थोड़ा भी प्रमाद होने से उनके लिए प्रायश्चित का विधान है। इन व्रतों और नियमों को सूक्ष्म चचो यहां अपेक्षित नहीं है, किन्तु इतना अवश्य है कि साधु को किस तरह भिक्षावृत्ति करना, कहां रहना, कैसे रहना, बीमार हो जाने पर किस प्रकार चिकित्सा कराना, तथा उपसर्ग अथवा दुर्भिक्ष उपस्थित होने पर, राज्य में अव्यवस्था होने पर और महामारी आदि फैलने पर किस प्रकार अपने चारित्र और संयम को सुरक्षित रखना, इन सब बातों का प्राचीन जैनसूत्रों-विशेषकर छेदसूत्रों में खूब विस्तार से वर्णन किया गया है। निस्सन्देह इस वर्णन से तत्कालीन भारतीय जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
निर्ग्रन्थ श्रमणों का संकटमय जीवन ___ संघ-व्यवस्था की स्थापना के पहले जैन श्रमणों को अपने चारित्र की रक्षा के लिए एक से एक कठिन संकटों का सामना करना पड़ता था। उन दिनों एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन की अनेक कठिनाइयां थीं, चोर-डाकू और जंगली जानवरों के भीषण उपद्रव हुआ करते थे, विरुद्ध राज्य होने पर सर्वत्र अव्यवस्था फैल जाती थी, दर्भिक्ष और महामारी आदि रोग सर्वनाश कर डालते थे, वसति (ठहरने ) की कठिन समस्या थी, जैन श्रमणों तथा अन्य तोर्थिकों-खासकर ब्राह्मणों-में वाद-विवाद हुआ करते थे, और रोग से पीड़ित होने पर साधुओं को भयकर कष्ट सहने पड़ते थे। ऐसो संकटकालीन स्थिति में भी जैन श्रमण व्रत, नियम और संयम का दृढ़तापूर्वक पालन करने के लिए दत्तचित्त रहते थे। ऐसा करते हुए कितने ही नाजुक क्षण ऐसे आते कि जोवन-मरण को स्थिति उत्पन्न हो जाती. और उस समय सुख-दुख के प्रति समभाव रखते हुए, शांतिपूर्वक प्राणों का त्याग करने में वे अपना परम सौभाग्य समझते ।
अध्वप्रकरण श्रमणों का गमनागमन धर्मप्रचार का एक महत्वपूर्ण अंग माना १. ज्ञातृधर्मककथा १, पृ० २८ ।
२. साधुद्रोही मनुष्यों के वर्णन के लिए देखिये सूत्रकृतांग २,२.३२, १० ३२२ आदि ।