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३६२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड इनमें मात्रक और चोलपट्ट मिला देने से स्थविरकल्पियों के चौदह उपकरण हो जाते हैं। अन्य पात्रों में नंदोभाजन, पतद्ग्रह, विपतद्ग्रह, कमढक, विमात्रक और प्रश्रवणमात्रक के नाम आते है । वर्षा ऋतु के योग्य उपकरणों में डगल ( टट्टी पोंछने के मिट्टी आदि के ढेले), क्षार (राख), कुटमुख (घड़े जैसा पात्र), तीन प्रकार के मात्रक, लेप, पादलेखनिका, संस्तारक, पीठ और फलक के नाम उल्लेखनीय है ।
श्रमण निग्रन्थ प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाते और केशलोच करते । किसी प्रकार को ग्रंथि न रहने के कारण वे निर्ग्रन्थ कहे जाते थे। वे निम्नलिखित व्रतों का पालन करते थे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रिभोजन त्यागः पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों की रक्षा; अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग, गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का त्याग, खाट (पलियंक) और आसन (निसज्जा निषद्या ), तथा स्नान और शरीरभूषा का त्याग।५।।
निर्ग्रन्थों को निम्नलिखित भोजन-पान ग्रहण करने का निषेध किया गया है जो भोजन-पान खासतौर से उनके लिए तैयार किया गया हो (आधाकर्म), जो उद्दिष्ट हो, खरीदा गया हो (क्रीतकृत ) उठाकर रक्खा हुआ हो, और उनके लिए बनाया गया हो। इसी प्रकार दुर्भिक्ष-भोजन (दुर्भिक्ष-पीड़ितों के लिए रक्खा हुआ , कांतार-भोजन ( जंगल के लोगों के लिए तैयार किया हुआ), वदलिका-भोजन (वर्षा ऋतु में तैयार किया हुआ), ग्लान-भोजन (बीमारों का
१. निशीथभाष्य २.१३९०-९७; बृहत्कल्पभाष्य ३.३९६२ आदि; उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ७५; ओघनियुक्ति ६६६-७४६ । स्थविरकल्पियों के लिए देखिए आचारांगसूत्र ७.४.२०८ आदि । पटल और चोलपट्ट का उपयोग जननेन्द्रिय को ढंकने के लिए भी किया जाता था, बृहत्कल्पभाष्य १.२६५९ । दिगम्बर मान्यता के लिए देखिए देवसेन, भावसंग्रह ११९-३३; कामताप्रसाद जैन, जैन एंटीक्वेरी, जिल्द ६, नं० ११ ।।
२. शिथिल साधुओं में सारूपिक, सिद्धपुत्र, असावग्न, पार्श्वस्थ आदि का उल्लेख है। देखिये निशीथचूर्णीपीठिका ३४६; १४.४५८७, व्यवहारभाष्य ८.२८८; गच्छाचारटीका, पृ० ८४ अ ।
३. व्यवहारभाष्य ८.२५० आदि । ४. बृहत्कल्पभाष्य ३.४२६३ । ५. दशवैकालिकसूत्र ६.८ ।