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पांचवां खण्ड ] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
धन्य अनगार की तपस्या धन्य अनगार की तपस्या का वर्णन करते हुए कहा है कि उसके पाद, जंघा और ऊरु सूखकर रूक्ष हो गये थे, पेट पिचक कर कमर से जा लगा था और दोनों ओर से उठ कर विकराल कढ़ाई के समान हो गया था। उसकी पसलियां दिखायी दे रही थीं। कमर की हड़ियां अक्षमाला की भांति एक-एक करके गिनी जा सकती थीं, वक्षःस्थल की हड्डियां गंगा को लहरों के समान अलग-अलग दिखायी पड़ती थी, भुजाएँ सूखे हुए सपं की भांति कृश हो गयी थी, और हाथ घोड़े के मुँह पर बांधने के तोबरे को भांति शिथिल होकर लटक गये ये । उसका सिर वातरोगी के समान कांप रहा था, मुंह मुरझाये हुए कमल की भांति म्लान हो गया था और घट के समान खुला होने से बड़ा विकराल प्रतीत होता था, नयन-कोश अन्दर को धंस गये थे, और बोलते समय उसे मूर्छा आ जाती थी। इस प्रकार राख से आच्छन्न अग्नि की भांति अपने तप और तेज से वह शोभित हो रहा था। किसो नपस्वी के सम्बन्ध में कहा है कि तप्त शिला पर आरूढ़ होते ही उसका कोमल शरीर नवनीत की भांति पिघल कर बहने लगा। चिलात मुनि के शरीर को चींटियों ने खाकर छलनी बना दिया था।
जिनकल्प और स्थविरकल्प निम्रन्थ श्रमण दो प्रकार के बताये गये हैं-जिनकल्पी औरस्थविरकल्पी । जिनकल्पो पाणिपात्रभोजी और प्रतिग्रहधारी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। कुछ पाणिपात्रभोजी ऐसे होते हैं जो वस्त्र नहीं रखते, केवल रजोहरण और मुखवस्त्रिका ही रखते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो रजोहरण और मुखवत्रिका के साथ-साथ एक, दो अथवा तीन वस्त्र ( कप्प = कल्प) धारण करते हैं। जो प्रतिग्रहधारी होते हैं, यदि वे वस्त्र धारण नहीं करते, तो निम्नलिखित बारह उपकरण रखते हैंपात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका (पात्रमुखवत्रिका), पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, तोन प्रच्छादक (वस्त्र), रजोहरण और मुखवत्रिका ।
१. अनुत्तरोपपातिकदशा ३.१ । बुद्ध की तपस्या के लिए देखिये मज्झिमनिकाय १, १२, पृ० ११२।
२. उत्तराध्ययनटीका १, पृ० २१ । ३. आवश्यकचूर्णी पृ० ४६७; तथा देखिये निदानकथा, पृ० ८७-८८ ।