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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ पांचवां खण्ड -
वृषभ, अभिषेक और भिक्षु इन चार भेदों में विभक्त किये गये हैं । व्रत-नियम पालन की दुश्वरता
श्रवण निर्ग्रन्थों के व्रत और नियमों का पालन परम दुश्वर ( परमदुच्चर) बताया गया है । जैसे, गंगा के प्रतिस्रोत को पार करना, समुद्र को भुजाओं से तैरना, बालू के ग्रास को भक्षण करना, असिकी धार पर चलना, लोहे के चने चबाना, प्रज्वलित अग्नि की शिखा पकड़ना, और मंदरगिरि को तराजू पर तोलना महादुष्कर है, इसी प्रकार श्रमणधर्म का आचरण भी महादुष्कर बताया गया है । इस धर्म के पालने में सर्प की भांति एकान्त दृष्टि और छुरे की भांति एकान्त धार रखते हुए, यत्नपूर्वक आचरण करना पड़ता है । इसलिए कहा है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन में क्लीब, कायर और कापुरुषों, तथा इहलौकिक इच्छाओं में रचे-पचे और परलोक के प्रति उदासीन लोगों का काम नहीं । इसका पालन तो कोई धीर, दृढ़चित्त और व्यवसायी पुरुष हो कर सकते हैं । 3
निर्ग्रन्थ श्रमणों की तपस्या अत्यन्त विकट होती थी । भिक्षु भिक्षुणियों के सम्बन्ध में कहा है कि आहार करते समय उन्हें चाहिये कि आहार को दांये जबड़े से बांये जबड़े की ओर और बांये जबड़े से दांये जबड़े की ओर न ले जाकर बिना स्वाद लिये ही उसे निगल जायें, तथा मांस और रक्त का शोषण करते हुए मच्छर आदि जन्तुओं को न हटायें । जब मेघकुमार तप तपने लगे तो उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया तथा उसमें मांस और रक्त का नाममात्र भी न रहा । इसलिए जब वे चलते या उठते-बैठते तो उनकी हड्डियों में से किटकिट की आवाज निकलती | बड़ी कठिनतापूर्वक वे चल पाते और कुछ बोलते हुए या बोलने का प्रयत्न करते हुए उन्हें चक्कर आ जाता । जिस प्रकार अंगार, काष्ठ, पत्र, तिल और एरंड की गाड़ी सूर्य की गर्मी से सूख 'जाने पर कड़कड़ आवाज करती है, उसो प्रकार मेघकुमार के अस्थिचर्मावशेष शरीर में से आवाज सुनायी देने लगी ।"
१. निशीथभाष्य १५.४६३३ ।
२. उत्तराध्ययनसूत्र १६. ३६-४३ ।
३. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० २८ ।
४. आचारांग ७.४.२१२, पृ० २५२ । ५. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ४३ ।