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पांचवां खण्ड] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
३८९ वस्तु में ममत्व भाव नहीं है। अतएव मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता। ___शक्र हे राजर्षि, अपने नगर में प्राकार, गोपुर, अट्टालिका, खाई ( उस्सूलग और शतघ्नी आदि का प्रबन्ध करने के पश्चात् , निराकुल होकर आप संसार का त्याग करें। ___ नमि-श्रद्धा रूपी नगर का निर्माण कर, उसमें तप और संवर के मूसले ( अर्गल ) लगाकर, क्षमा का प्राकार बनाकर, तीन गुप्तियों रूपी अट्टालिका, खाई और शतघ्नी का प्रबन्ध कर, धनुष रूपी पराक्रम तानकर, ईर्यासमिति की प्रत्यञ्चा बांध कर, धैर्य की मूठ ( केतन ) लगाकर और तप के बाण से कर्मरूपी कंचुक को भेदकर, मैंने संग्राम में विजय प्राप्त की है, अतएव अब मैं संसार से छुटकारा पा गया हूँ।
इस प्रकार शक्र के अनेक प्रकार से समझाने-बुझाने पर भी नमि अपने व्रत में दृढ़ रहे और उन्होंने श्रमण दीक्षा ग्रहण की।
श्रमण संघ प्राचीन भारत में जैन श्रमणों का संघ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और अद्वितीय संगठन था। वस्तुतः समस्त भारत के इतिहास में, बोद्ध धम के उदय से भा पहले, जैन संघ एक संगठित संघ रहा। जैसा कि कहा जा चुका है, जैन संघ चार भागों में विभक्त था-श्रमण, श्रमणो, श्रावक और श्राविका । प्राचीन जैनसूत्रों में इस प्रकार के अनेक उल्लेख हैं जिनसे पता लगता है कि जैन साधु अपने संघ या गण बनाकर किसी आचार्य के नेतृत्व में, नियमों और व्रतों का पालन करते हुए, किसी उपाश्रय या वसति में एक साथ रहते थे । पार्श्वनाथ और महावोर के इस प्रकार के अनेक अनुयायी थे जो संघबद्ध होकर उनके साथ भ्रमण किया करते थे । आचार्य वज्रस्वामी के गण में ५०० साधु एकत्र विहार करते थे। जैन श्रमण अपने-अपने पदों के भेद से आचार्य, ____१. तुलना कीजिये महाभारत शांति पर्व ( १२.१७८); सोनक जातक (५२९ ), ५, पृ० ३३७-३८ ।
२. उत्तराध्ययनसूत्र, ६ वाँ अध्याय ।
३. व्यवहारभाष्य में कहा है कि जैसे नृत्य के बिना नट नहीं होता, नायक के बिना स्त्री नहीं होती, धुरे के बिना गाड़ी का पहिया नहीं चलता, वैसे ही आचार्य (गणी) के बिना गण नहीं चलता, जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० २१८ ।
४. आवश्यकचूर्णी, पृ० ३९४ ।