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३८६ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड कमलों के तालाब या शिखर वाले चैत्यगृह को प्रशस्त कहा है । तिथियों में चतुर्थी और अष्टमो को छोड़कर शेष तिथियों में प्रव्रज्या ग्रहण करने का विधान है।' प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए माता-पिता अथवा अभिभावकों की अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक है। द्रौपदो की अनुज्ञा मिलने के पश्चात् ही पाण्डव दीक्षा ग्रहण कर सके, और भगवान महावीर को जब तक उनके गुरुजनों और ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा न मिली तब तक वे गृहवास में ही रहे। मेघकुमार प्रव्रजित होने के लिए जब भगवान महावीर के समीप उपस्थित हुए तो उनके माता-पिता ने शिष्य-भिक्षा दी।
निष्क्रमण-सत्कार निष्क्रमण-सत्कार बहुत ठाट-बाट से मनाया जाता था । इस पुनीत अवसर पर लोगों में अत्यन्त उत्साह दिखायी पड़ता, और राजामहाराजा भी इसमें सक्रिय रूप से सम्मिलित होते । किसी लकड़हारे ने संभवतः दरिद्रता से तंग आकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। लेकिन प्रवजित होने के बाद जब वह भिक्षा के लिए जाता तो लोग उसे चिड़ाते । लकड़हारे ने आचार्य से कहीं अन्यत्र ले चलने का अनुरोध किया । श्रेणिक के मन्त्री अभयकुमार को जब इस बात का पता लगा तो उसने लोगों की परीक्षा ली, तथा अग्नि, जल और अपनी महिला का त्याग करके दोक्षा ग्रहण करने वालों को बहुत-सा सोना पुरस्कार में दिया ।" ___ थावच्चापुत्र ने जब निग्रन्थ प्रवचन का उपदेश श्रवण कर प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की तो उसकी माता राजा के योग्य भेंट ग्रहण कर, अपने मित्र आदि के साथ, कृष्णवासुदेव के दरबार में उपस्थित हुई। उसने निवेदन किया-"महाराज, मैं अपने पुत्र का निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ, अतएव आपका अत्यन्त अनुग्रह हो यदि आप छत्र, मुकुट और चमर देने का कष्ट करें।" कृष्णवासुदेव ने उत्तर दिया-"तुम निश्चिन्त रहो, तुम्हारे पुत्र का निष्क्रमण-सत्कार मैं करूँगा।"
१. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका ४१३ । २. ज्ञातृधर्मकथा १६, पृ० १६८ !
३. कल्पसूत्र ५.११०, पृ० १२१ अ । राहुल की प्रव्रज्या के लिये देखिये महावग्ग १.४६.१०५, पृ० ८६ ।
४. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ३३; अन्तःकृद्दशा ५, पृ० २८ । ५. दशवैकालिकचूर्णी, पृ० ८३ ।