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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ पांचवां खण्ड
दीक्षा का निषेध
यद्यपि निर्ग्रन्थ-श्रमणों की दीक्षा का द्वार हर किसी के लिए खुला था, फिर भी कुछ अपवाद नियम भी थे। जैसे कि पंडक (नपुंसक ), वातिक ( वात का रोगी ) और क्लीब को दीक्षा का निषेध किया गया है । इसी प्रकार बाल, वृद्ध, जड़, व्याधिग्रस्त, स्तेन, राजापकारी, उन्मत्त, अदर्शन ( अन्धा ), दास, दुष्ट, मूढ, ऋणपीड़ित, जात्यंग होन, अवबद्ध ( सेवक ), शैक्षनिष्फेटित ( अपहृत किया हुआ), गुर्विणो ( गर्भवती ) और बालवत्सा को दीक्षा देने की मनायी है।
कम-से-कम छ वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या दी जा सकती है, वैसे साधारणतया आठ वर्ष से कम अवस्थावाले को प्रव्रज्या देने का है। बालक को प्रव्रज्या देने में अनेक दोष बताये गये हैं- ( क ) लोग बालक को श्रमणों के साथ देखकर उपहास करने लगते हैं कि यह इनके ब्रह्मचर्य व्रत का फल मालूम होता है । (ख) जैसे लोहे के गोले को अग्नि में डालने से जहाँ-जहाँ वह घूमता है, वहाँ वहाँ जलने लगता है, उसी प्रकार बालक को जहाँ भी छोड़ दिया जाय, वहीं पर वह छ काय के जीवों की विराधना करने लगता है, (ग) रात्रि में वह भोजन मांगता है, (घ ) लोग कहते हैं कि बचपन से ही इसे जेल में डाल दिया है, और ये श्रमण जेलर ( नारगपालग ) का काम कर रहे हैं, (ङ) इससे श्रमणों का अपयश होता है । (च) बालक के कारण विहार करने में अन्तराय होता है । (छ) आठव से कम अवस्थावाले बालक में चारित्र नहीं होता, अतएव उसे प्रव्रज्या देनेवाला चरित्र से भ्रष्ट होता है ।
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बाल - प्रव्रज्या
इतना सब होने पर भी अमुक परिस्थितियों में बालक को प्रव्रज्या देने का विधान है - ( क ) यदि समस्त परिवार प्रत्रज्या लेने के लिए तैयार हो, (ख) यदि किसी साधु के सगे-सम्बन्धी महामारी आदि
१. व्यवहारभाष्य भाग ४, २.२०१ आदि में गणिका द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है ।
२. स्थानांग ३.२०२; निशीथभाष्य ११.३५०३ - ७ । तथा देखिये महावग्ग, १.३१,८८ आदि, पृ. ७६ आदि, उपसंपदा और प्रवज्या के नियम |
३. छब्बरिसो पव्वइओ, व्याख्याप्रज्ञप्तिटीका ५.३ ।
४. निशीथभाष्य ११.३५३१ - ३२; देखिये महावग्ग १.४१.९९, पृ०
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