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पांचवां खण्ड ]
पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय
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राजा भी अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार कराता, तथा स्नान आदि से निवृत्त हो, सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कर, आभिषेक्य हस्तिरत्न पर सवार हो, जय-जय शब्द के साथ प्रस्थान करता । उसकी रानियां अपनी दासियों और कंचुकियों आदि के साथ यानों में सवार होतीं और तीर्थंकर के पास पहुँच अत्यन्त विनयपूर्वक उपासना करतीं ।" ऐसे महान पुरुषों के नामगोत्र ( नामगोय ) का श्रवण भी अहोभाग्य समझा जाता, और यदि कहीं उनके साक्षात् दर्शन हो गये और उनकी पर्युपासना करने का अवसर मिल गया तो फिर बात ही क्या थी ।
श्रमणों के प्रकार
निशीथभाष्य में श्रमणों के पाँच प्रकार बताये गये हैं- णिग्गंथ ( खमण ), सक्क ( रत्तपड ), तावस ( वणवासी), गेरुअ ( परिव्वायअ) और आजीविय ( पंडराभिक्खु; गोशाल के शिष्य ) ।
१ समग्गिंथ ( श्रमण निर्ग्रन्थ )
जो व्यक्ति संसार का त्यागकर साधु या साध्वी का जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखते थे, उन्हें किसी जाति-पांति के भेदभाव के बिना, जैन संघ में प्रविष्ट कर लिया जाता था । संसार - परिभ्रमण से व्यथित हुए केवल सामान्य स्त्री-पुरुष ही संसार का त्याग नहीं करते थे, बल्कि ऐश्वर्य, विद्वत्ता, शूरवीरता और पराक्रम से सम्पन्न उच्चवर्गीय क्षत्रिय, श्रेष्ठी तथा राजा और राजकुमार आदि भी श्रमण-दीक्षा स्वीकार करने के लिए उत्सुक रहते थे । ये लोग सांसारिक विषयभोगों को तुच्छ समझ, धन, धान्य और कुटुम्ब - परिवारका त्याग कर देते, तथा जीवन को जल के बुद्बुदों और ओसकण के समान क्षणभंगुर जान, दुनिया की तड़क-भड़क और शान-शौकत की जगह अनगारिक श्रमणों के जीवन को स्वीकार करते ।
सामाजिक व्यवस्था संतोषजनक न होने के कारण चारों ओर १. वही, सूत्र २७-३३, पृ० १०७ - ४५; ज्ञातृधर्मकथा ५, पृ० ७३ । २. औपपातिक २७, पृ० १०८ ।
३. १३.४४२०; आचारांगचूर्णी २.१, पृ० ३३०; बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति १.१४६० । आजीवक, तापस, परिव्राजक, तच्चन्निय (बौद्ध) और बोटिक इन पाँचों को वंदन करने का निषेध है, आवश्यकचूर्णी २, पृ० २० ।
४. औपपातिकसूत्र १४, पृ० ४९ ।