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३७२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड छेद देना चाहिए | फिर भी यदि शरीर में कोई व्यंतर या प्रत्यनीक देवता प्रविष्ट कर जाय, तो बायें हाथ में उसका मूत्र ( कायिको ) लेकर मृतक के शरीर का सिंचन करना चाहिए, और कहना चाहिए-हे गुह्यक, सचेत हो, सचेत हो, प्रमाद मत कर, संस्तारक से मत उठ ।' ___ मृतक को ले जाते समय, किसी कोरे पात्र (पात्रक ) में चार अंगुल प्रमाण, समान काटे हुए कुश लेकर, पीछे की ओर न देखते हुए, आगे स्थंडिल की ओर गमन करना चाहिए। यदि दर्भ न मिल तो उसकी जगह केशर का उपयोग किया जा सकता है। यदि वहाँ किसी गृहस्थ का शव हो तो उसे रखकर हाथ-पैर आदि धोने चाहिए। जिस दिशा में गाँव हो उस ओर शव के पैर रखने से अमंगल समझा जाता है, अतएव गाँव की ओर शव का सिर रखना चाहिए ।
स्थंडिल में पहुँचकर वहाँ दर्भ की मुष्टि से संस्तारक तैयार करना चाहिए। यदि दर्भ न मिले तो चूर्ण, नागकेशर अथवा लेप आदि के द्वारा ककार और उसके नीचे तकार बनाना चाहिए। तत्पश्चात् मृतक को उस पर स्थापित करके उसके पास रजोहरण,२ मुखपत्ती और चोलपट्ट रखना चाहिए | इन चिह्नों के न रखने से कालगत साधु मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है, अथवा यदि राजा को पता लग जाय तो यह समझकर कि इसे किसी ने मार दिया है, वह आसपास के ग्रामों को उच्छेद करने को आज्ञा दे सकता है। ___ यदि कालगत साधु के शरीर में यक्ष प्रविष्ट हो जाय तो उपाश्रय, निवेशन, मोहल्ला ( साही), गामा, ग्राम, मंडल, देशखण्ड (कंड ), देश और राज्य के परित्याग करने का विधान है । यदि कदाचित् यक्षाविष्ट साधु एक-दो या सब साधुओं के नामों का उच्चारण करे तो उन्हें लोच, तप और उपवास आदि करना चाहिए। मंगल के लिए अजित नाथ और शांतिनाथ के स्तोत्रों का पाठ करना चाहिए ।
१. बृहत्कल्पभाष्य ४.५४९९-५५२६; शिवाय, भगवतीआराधना १९७६ ।
२. शिवार्य की भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में 'सपिंछकं शरीरं व्युत्स्रष्टव्यं' उल्लेख है, लेकिन मूल गाथा में पिंछी की बात नहीं कही गयी है । पण्डित आशाधर ने लिखा है-अन्ये तु दक्षिणहस्ते पिछं स्थाप्यंते, गाथा १९८६; तथा १९८२ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य ४.५५३०-३७ । ४. वही ४.५५४१-४७ ।