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च० खण्ड] छठा अध्याय : रीति-रिवाज __ ३७१ में गाड़ देते थे। दोव और यवन देशों में यह रिवाज था।
. जैन श्रमणों की नीहरण क्रिया जैन साधु के कालगत होने पर उसकी नोहरण क्रिया को विस्तृत विधि का उल्लेख छेदसूत्रों में मिलता है। सर्वप्रथम शव को ले जाने के लिए सागारिक ( उपाश्रय का मालिक ) के वहनकाष्ठर और स्थंडिल' (मृतक का दग्धस्थान ) का निरीक्षण करना चाहिए। मृतक को अढ़ाई हाथ लम्बे धवल सुगन्धित वस्त्र से ढंकना चाहिए। एक वस्त्र को उसके नीचे बिछाना चाहिए, दूसरा उसके ऊपर डालना चाहिए, और शव को रस्सी से बाँधकर, फिर उसे तीसरे वस्त्र से ढंक देना चाहिए । साधारणतया दिन या रात्रि में जब भी साधु कालगत हो, उसे उसी समय निकालना चाहिए। लेकिन यदि रात्रि में भयंकर हिम गिरता हो, चोर या जंगली जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, नगर में महान् कोलाहल मचा हुआ हो, रात्रि के समय मृतक को न निकालने की नागरिक व्यवस्था हो, मृतक के सम्बन्धियों ने कहा हो कि उनसे बिना कहे मृतक को न निकाला जाय, अथवा मृतक कोई लोक-विश्रुत महातपस्वी हो, तो उसे रात्रि के समय नहों ले जाना चाहिए | इसी प्रकार यदि शुचि और श्वेत वस्त्रों का अभाव हो, राजा अथवा नगर का स्वामी नगर में प्रवेश कर रहा हो, अथवा वह भट-भोजिक आदि के साथ नगर से बाहर जा रहा हो, तो मृतक को दिन में ले जाने का निषेध है। यदि साधु अभी हाल में कालगत हुआ हो और उसका शरीर जकड़ न गया हो तो उसके हाथ और पैरों को लम्बे करके फैला दे और उसकी आँख और मुँह बन्द कर दे।
ऐसी दशा में साधुओं को रात्रि में जागरण करना चाहिए। हाथ और पैरों के अंगूठों को रस्सी से बाँधकर मुखपोतिका से मृतक का मुँह ढंक देना चाहिए तथा यदि रात्रि को जागरण करना पड़े तो मृतक की अक्षत देह में, उसकी उँगली को चीरकर उसे अन्दर तक
१. आचारांगचूर्णी, पृ० ३७०; निशीथसूत्र ३.७२; निशोथभाष्य ३. १५३५-३६।
२. बृहत्कल्पसूत्र ४.२९ और भाष्य । ३. सूत्रकृतांग २, १.९, पृ० २७५-अ में इसे आसदीपंचमा कहा है ।
४. छारचितिवजितं केवलं मडयदड्ढहाणं थंडिलं भण्णति, निशीथचूर्णी ३.१५३६ ।