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३६६ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड संखडि में रात्रि को भोजन किया जाता था और प्रातःकाल सूर्योदय के समय दुग्धपान आदि का रिवाज था ।' उज्जयंत (गिरनार ), ज्ञातृखंड और सिद्धशिला आदि सम्यक्त्व-भावित तीर्थो पर प्रतिवर्ष संखडि मनायी जाती थी। शय्यातर (गृहस्वामी) की देवकुलिका के और नये घर के व्यंतर को प्रसन्न करने के लिए भी संखडि मनायो जाती थी।
जैन श्रमणों को यथासंभव संखडियों में जाने का निषेध है। कारण कि संखडि का नाम सुनकर शाक्य, भौत और भागवत आदि परतीर्थिक संखडि में सम्मिलित होते हैं और उनके साथ वाद-विवाद होने की आशंका रहतो है । इसके अतिरिक्त, प्रत्यनीक उपासक कभी श्रमणों के भोजन में विष आदि मिश्रित कर देते हैं। कभी ब्राहण संखडि के स्वामी से नाराज होकर भोजन नहीं करते, अथवा उत्कृष्ट द्रव्य श्रमणों को पहले क्यों दिया गया, यह सोचकर घर में आग लगा देते हैं, या किसी श्रमण पर गुस्सा होकर उसे मार डालते हैं। यह भी संभव है कि संखडि का स्वामो पहले ब्राह्मणों को भोजन कराकर बाद में श्रमणों को दे । संखडि में उपस्थित जैन श्रमणों को देखकर लोग यह भी कह देते हैं कि रूक्ष भोजन से ऊबकर अब ये यहां आये हैं और उससे प्रवचन का उपहास होता है। संखडि के समय कुत्तों द्वारा भोजन अपहरण किये जाने की और चोरों के उपद्रव की आशंका रहती है। ऐसे अवसरों पर उन्मत्त हुए विट लोग विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो, अनेक अभिनयों से पूर्ण शृंगाररस के काव्य पढ़ते हैं,
और मत्त हुए स्त्री-पुरुष विविध प्रकार की क्रीड़ाएं करते है। संखोड में सम्मिलित होने के लिए लोग दूर-दूर से आते है और बहुत-सा आदि शब्द से कूप, तडाग, नाग, गण और यक्ष सम्बन्धी यज्ञ संखड़ी समझना चाहिए, निशीथचूर्णी ११.३४०२ की चूणीं ।
१. बृहत्कल्पभाष्य ४.४८८१ । तुलना कीजिए महाभारत २.५३.२२; हरिवंशपुराण २.१७.११ आदि ।
२. बृहत्कल्पभाष्य १.३१९२ । ३. वही २.३५८६ । ४. वही ३.४७६९। ५. वही १.३१६० । ६. निशीथभाष्य ३.१४८० की चूर्णी | ७. बृहत्कल्पभाष्य १.३१५६ । ८. वही १.३१६८-७० ।