________________
च० खण्ड ] . छठा अध्याय : रीति-रिवाज
३५५ माने गये हैं। यदि वे दक्षिण दिशा में दिखायी पड़ जायें तो सर्व सम्पत्ति का लाभ समझना चाहिए।' वृक्षों में पत्ररहित वबूल, कांटों वाले वृक्ष और झाड़ियां (जैसे बेर और बबूल आदि ), बिजली गिरने से भग्न हुए वृक्ष, और कडुए रसवाले रोहिणी, कुटज और नीम आदि वृक्षों को अमनोज्ञ बताया है। एक पोरी वाले दंड को शुभ, दो पोरी वाले को कलहकारक, तीन पोरी वाले को लाभदायक और चार पोरी वाले दंड को मृत्यु का हेतु बताया है।
तिथि, करण और नक्षत्र प्राचीन जैनसूत्रों में तिथि, करण और नक्षत्र का जगह-जगह उल्लेख आता है। लोग शुभ तिथि, करण और नक्षत्र देखकर ही किसी कार्य के लिए प्रस्थान करते थे। यात्रा के अवसर पर इनका विशेषरूप से ध्यान रक्खा जाता था। चम्पा नगरी के अहंन्नग आदि व्यापारियों का उल्लेख पहले आ चुका है। इन लोगों ने शुभ मुहूर्त में विपुल अशन, पान आदि तैयार कराकर अपने स्वजन-सम्बन्धियों को खिलाया और फिर बन्दरगाह के लिए रवाना हुऐ। शुभ शकुन ग्रहण करने के बाद सब लोग जहाज पर सवार हो गये। उस समय स्तुतिपाठक मंगल-वचनों का उच्चारण करने लगे, और पुण्य नक्षत्र में महाविजय का मुहूर्त समझ, जहाज का लंगर खोल दिया गया ।" जैन साधु भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते समय तिथि, करण
और नक्षत्र का विचार करते थे । गमन के लिए चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी और द्वादशी को शुभ बताया है, और सन्ध्याकालीन नक्षत्र को वर्जित कहा है।
प्राप्ति होती है, देखिये आवश्यकचूर्णी २, पृ० १७९। सर्प के भक्षण करने से पशु-पक्षियों की भाषाएँ समझ में आने लगती हैं, कथासरित्सागर, जिल्द २, अध्याय २०, पृ० १०८ फुटनोट ।
१. ओघनियुक्तिभाष्य १०८ आदि । २. व्यवहारभाष्य १, २ गाथा १२५-३०, पृ० ४० आदि । ३. उत्तराध्ययनटीका ९, पृ० १३३ अ। ४. पसत्थेसु निमित्तेसु पसत्थाणि समारभे ।
अप्पसत्थनिमित्तेसु सव्वकजाणि वजए ॥-गणिविद्या ७५ । ५. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० ९७ आदि । ६. व्यवहारभाष्य, वही।