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________________ ३४० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ च० खण्ड किया जिससे राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें आभूषण देने चाहे, लेकिन आचार्य ने लेने से इन्कार कर दिया ।' आचार्य भद्रबाहु एक महान् नैमित्तिक माने गये हैं जो मंत्रविद्या में वे कुशल थे । उन्होंने उपसर्गहर स्तोत्र की रचना करके उसे संघ के पास भिजवा दिया जिससे कि व्यंतर देव का उपद्रव शान्त हो सके । पादलिप्त आचार्य का उल्लेख किया जा चुका है। उन्होंने अपनी विद्या के बल से राजा की भगिनी की तंत्र - प्रतिमा बनाकर तैयार की थी। उन्होंने प्रतिष्ठान के राजा मुरुड की शिरोवेदना दूर की थी । आर्य खपुट विद्याबल, बाहुबली औरस्य ( आभ्यंतर ) बल, ब्रह्मदत्त तेजोलब्धि और हरिकेश सहायलब्धि से सम्पन्न माने गये हैं । श्रीगुप्त आचार्य वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगो, वाराही, काकी और शकुनिका नामक सात विद्याओं के धारी बताये गये हैं ।" आचार्य रोहगुप्त भी मयूरी, नकुली, बिडाली, व्याघ्री, सिंह, उलूकी और उलावकी नामक विद्याओं से सम्पन्न थे । उन्होंने अभिमंत्रित रजोहरण के बल से विद्याधारी किसी परिव्राजक के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की । सिद्धसेन आचार्य द्वारा योनिप्राभृत की सहायता से अश्व उत्पादन करने का उल्लेख किया गया है ।" विष्णुकुमार मुनि को तो निर्ग्रथ प्रवचन के अनुपम रक्षक के रूप में स्वीकार किया है। विद्या और मंत्र-तंत्र का निषेध यद्यपि बौद्धसूत्रों की भांति जैनसूत्रों में भी विद्या और मंत्र-तंत्र का निषेध किया गया है, फिर भी संकट आदि उपस्थित होने पर ९ १. देखिए कल्याणविजय, श्रमण भगवान् महावीर, पृ० २६० आदि । २. गच्छाचारवृत्ति, पृ० ९३-९६ । ३. पिंडनिर्युक्ति ४९७-९८ । ४. निशीथचूर्णी १०.२८६० । ५. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ७२; निशीथभाष्य १६.५६०२-४ । ६. वही । ७. निशीथचूर्णी ४, पृ० २८१; बृहत्कल्पभाष्य १.२६८१ । ८. व्यवहारभाष्य १. ९० - १, पृ० ७६ आदि । ९. मंत्र, मूल, विविध प्रकार की वैद्यसम्बन्धी चिंता, वमन, विरेचन, धूम, नेत्रसंस्कारक, स्नान, आतुर का स्मरण और चिकित्सा को त्यागकर संयम के मार्ग में संलग्न होने का उपदेश है उत्तराध्ययन १५.८ : १५.७; समवायांग
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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