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________________ च० खण्ड ] छठा अध्याय : रीति-रिवाज ३४१ जैन श्रमणों को उनका उपयोग करना पड़ता था । उदाहरण के लिए, संकटकालीन परिस्थितियों में मंत्र और योग की सहायता से भिक्षा ग्रहण करने के लिए वे बाध्य होते, इसे विद्यापिंड कहा जाता था'। जैनसूत्रों में कहा है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त के समकालीन दो क्षुल्लक अपनी आंखों में अदृश्य होने का अंजन लगाकर चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करते थे । यदि कभी महामारी अथवा गलगंड आदि के कारण लोग मरने लगते, शत्रु के सैनिक नगर के चारों ओर घेरा डाल लेते, या भुखमरी फैल जाती तो ऐसी दशा में यदि पुरवासी आचार्य की शरण में जाकर रक्षा के लिए प्रार्थना करते तो आचार्य अशिव आदि के उपशमन के लिए एक पुतला बनाते और मंत्रपाठ द्वारा उसका छेदन करते । इससे कुल देवता के शान्त हो जाने से उपद्रव मिट जाता | नवकार मंत्र को व्याधि, जल, अग्नि, तस्कर, डाकिनी, वैताल और राक्षस आदि का उपद्रव शांत करने के लिये परम शक्तिशाली कहा गया है ।" आवश्यकता होने पर आचार्य गर्भधारण और गर्भशातन आदि के लिए भी औषध आदि का प्रयोग बताते थे । कभी अटवी में गमन करते समय श्रमणों का गच्छ यदि मार्ग-भ्रष्ट हो जाता तो कार्योत्सर्ग द्वारा वनदेवता का आसन कंपित करके उससे मार्ग पूछा जाता । यदि कभी कोई प्रत्यनीक सार्थवाह साधुओं के टीका २९,४७ | लेकिन अन्यत्र अतिशयसम्पन्न, ऋद्धिदीक्षित, धर्मकथावादी, वादी, आचार्य, क्षपक, अष्टांगनिमित्त संपन्न, विद्यासिद्ध, राजवल्लभ, गणवल्लभइन आठ व्यक्तियों को तीर्थ का प्रकाशक कहा गया है, निशीथचूर्णीपीठिका ३३ । १. मनुस्मृति ६.५० में नक्षत्रांगविद्या आदि द्वारा भिक्षा ग्रहण करने का निषेध है । २. पिंडनिर्युक्ति ४९७-५११ । निशीथसूत्र १३.७२ इत्यादि में मायापिंड, लोभपिंड, विद्यापिंड, मंत्रपिंड, चूर्णपिंड, अन्तर्धानपिंड और योगपिंड आदि का उल्लेख है । ३. शत्रु को मर्दन करने, दण्डित करने अथवा वश में करने के लिये पुतला बनाने का उल्लेख मिलता है, निशीथचूर्णापीठिका १६७ । ४. बृहत्कल्पभाष्य ४.५११२-१३, ५११६ । ५. उत्तराध्ययनसूत्र ९, पृ० १३३ । ६. पिंडनिर्युक्ति, ५१०-११ । ७. बृहत्कल्पभाष्य, १.३१०८ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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