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च० खण्ड ]
पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान
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का उल्लेख है ।' देवों द्वारा निर्मित स्तूप का भी उल्लेख आता है । इस प्रकार का एक स्तूप मथुरा में निर्मित किया गया था। इसे लेकर जैन और बौद्धों में विवाद छिड़ा था । वर्धमानक ग्राम में ग्रामवासियों को हड्डियों पर एक यक्ष- मंदिर बनाया गया था जिससे गांव का नाम ही अट्ठियगाम ( अस्थिग्राम ) हो गया था। मृतक के स्थान पर बनाये हुए देवकुल को मृतक -लयन अथवा मृतक गृह के नाम से भी कहा जाता था । म्लेच्छों के घरों के अन्दर ही मृतक को गाड़ देते थे, जलाने की प्रथा उनमें नहीं थी ।
पर्वत में उत्कीर्ण घर ( गुफा ) को लयन कहा गया है । कार्पाटिक आदि साधु यहां निवास करते थे ।
विविध आसन
दि विवाह की प्रीतिदान की सूची में पीड़ा ( पावीढ ), आसन ( भिसिय), पलंग (पल्लंक ) और शय्या ( पडिसिज्जा ) का उल्लेख किया जा चुका है । विविध आसनों के नाम आ चुके हैं ।" दंडसंपुच्छणी और वेणुसंपुच्छणी नाम की लम्बी झाडुओं के नाम आते
१. आवश्यकचूर्णा पृ० २२३ आदि । तुलना कीजिए तित्तिर जातक ( ४३८ ), ३, पृ० १९८ के साथ । विहार-निर्माण के लिए अवदानशतक २,१५, पृ० ८७; महावंस, अध्याय २८; ए० के० कुमारस्वामी, इण्डियन आर्किटेक्चरल टर्म्स, जे० ए० ओ० एस० पृ० ४८-५३, १९२८ ।
२. व्यवहारभाष्य ५.२७ आदि । राजमल्ल के जम्बूस्वामीचरित में मथुरा में ५०० से अधिक स्तूपों का उल्लेख है । तथा देखिए बृहत्कथाकोश १२.१३२ । रामायण ७.७०.५ में मथुरा को देवनिर्मिता कहा गया है ।
३. आवश्यकचूर्णी, पृ० २७२ ।
४. निशीथचूर्णी, ३.१५३५; आचारांगचूर्णी, पृ० ३७० ।
५. मडयस्स उवरिं जं देवकुलं तं लेणं भण्णति, निशीथचूर्णी, वही ।
६. अनुयोगद्वार टीका, पृ० १४५ ।
७. तथा देखिए राजप्रश्नीयसूत्र ११३ ; कल्पसूत्र ४.४९, ६३ । उपधान, रजस्त्राण, आसन आदि के लिए देखिए महावग्ग ५.९.२०, पृ० २११; चुल्लवग्ग ६.१.४, पृ० २४३; इण्डियन कल्चर जिल्द २, जुलाई, १९३५, पृ० २७१ आदि, गिरिजाप्रसन्नकुमार मजूमदार का 'फर्नीचर' के ऊपर लेख; मानसार, अध्याय ४४,४५; आर० एल० मित्र, इण्डो-आर्यन, जिल्द १, पृ० २४९ आदि ।
२२ जै० भा०