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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ च० खण्ड
रिणी' ( पुष्करिणी) आदि का उल्लेख मिलता है । पानी के पुल के लिये दगवीणिय, दगवाह अथवा दगपरिगाल शब्दों का प्रयोग किया गया है । धार्मिक स्थापत्यकला
धार्मिक स्थापत्यकला में देवकुलों का उल्लेख है । इनके सम्बन्ध में हम इतना ही जानते हैं कि यात्री लोग यहां आकर ठहरा करते थे । किसी वसति का निर्माण करने के लिये पहले दो धरन ( धारणा ) रक्खे जाते थे, उन पर एक खंभा ( पट्टीवंस ) तिरछा रखते थे । फिर दोनों धरनों के ऊपर दो-दो मूलवेलि ( छप्पर का आधारभूत स्तम्भ ) रक्खी जातीं । तत्पश्चात् मूलवेलि के ऊपर बांस रखे जाते और पृष्ठवंश को चटाई से ढक कर रस्सी बांध दी जाती । उसके बाद उसे दर्भ आदि से ढक दिया जाता, मिट्टी या गोबर का लेप किया जाता और उसमें दरवाजा लगा दिया जाता । 3 चैत्य- स्तूपनिर्माण
चैत्यों और स्तूपों का उल्लेख किया गया है। मृतक का अग्निसंस्कार करके, उसकी भस्म के ऊपर या आसपास में वृक्ष का आरोपण करते, या कोई शिलापट्ट स्थापित करते; इसे चैत्य कहा जाता था । मथुरा नगरी अपने मंगल चैत्य के लिए प्रसिद्ध थी। यहां पर गृह निर्माण करने के बाद, उत्तरंगों में अर्हत् - प्रतिमा का स्थापन किया जाता था । लोगों का विश्वास था कि इससे गृह के गिरने का भय नहीं रहता ।" जीवंत स्वामी की प्रतिमा को चिरंतन चैत्य में गिना गया है। मृतक के स्थान पर स्तूप भी निर्मित किये जाते थे । अष्टापद पर्वत पर भरत द्वारा आदि तीथङ्कर ऋषभदेव की स्मृति में स्तूप बनाने
१. ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ० १४२ आदि । राजगृह में वास्तुशास्त्रियों द्वारा बताई हुई भूमि में पुष्करिणी का निर्माण किया गया था ।
२. निशीथचूर्णी १.६३४ ।
३. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका ५८२ - ३; १.१६७५ - ७७ ।
४. चैत्य के लिये देखिये इंडियन हिस्टोरिकल कार्टलीं सितम्बर, १९३८
में वी० आर० रामचन्द्र दीक्षितार का लेख ।
५. बृहत्कल्पभाष्य १, १७७४ वृत्ति ।
६. वही १, २७५३ वृत्ति ।
७.
इट्टगादिचिया विच्चा (चिच्चा) थूभो भमण्णति, निशीथचूण ३. १५३५ ।