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० खण्ड ]
पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान
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प्रसिद्ध था ।' वर्धकी रत्न ( बढ़ई) के द्वारा निर्मित शीतघर में वर्षा, गर्मी और सर्दी का असर नहीं होता था । भूमिगृह, 3 अपद्वार* ( गुप्तद्वार ), सुरंग और जतुगृह ( लाक्षागृह ) का उल्लेख मिलता है । जतुगृह को अनेक स्तम्भों पर प्रतिष्ठित और गूढ़ निर्गम-प्रवेश वाला कहा गया है ।
स्वयंवरमंडप, व्यायामशाला आदि
स्वयंवरमंडप का उल्लेख किया जा चुका है । द्रौपदी के स्वयंवर के लिए बनाया हुआ मंडप सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित था, और अनेक पुत्तलिकाओं से वह रमणीय जान पड़ता था । व्यायामशाला ( अट्टणशाला ) में लोग वल्गन, व्यामर्दन और मल्लयुद्ध (कुश्ती) आदि अनेक प्रकार के व्यायाम द्वारा थकंकर, शतपाक और सहस्रपाक तेलों द्वारा अपने शरीर का मर्दन कराते थे । राजा-महाराजाओं के मज्जणघर ( स्नानगृह ) का फर्श मणि, मुक्ता और रत्नों से जटित रहता था । उसमें रत्नजटित स्नानपीठ' पर बैठकर राजा सुखपूर्वक पुष्पों के सुगन्धित जल आदि से स्नान करता, और तत्पश्चात् सुगंधित मुलायम तौलियों से शरीर को पोंछता । उबट्ठाणसाला ' ( उपस्थानशाला = अस्थानमंडप ), पोसहसाला " ( प्रौषधशाला ), कूडागार साला " ( कूटागारशाला - शिखर के आकारवाला घर ) और पोक्ख
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१. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २३२-अ ।
२. निशीथचूर्णी १० २७९४ की चूर्णी । महावग्ग १.८.२५ पृ० १८ में हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षाकाल में उपयोग में आनेवाले तीन प्रसादों का उल्लेख है। ३. उत्तराध्ययनटीका १३, पृ० १८५-अ ।
४. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० १११ ।
५. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १६५ ।
६. उत्तराध्ययनटीका १३, पृ० १८८ । लाक्षागृह के निर्माण के लिए देखिए महाभारत १.१५६ ।
७. गर्म पानी के स्नानगृहों (जंताघर ) का उल्लेख चुभवग्ग ५.७.१७, पृ० २०८ में मिलता है ।
८. कल्पसूत्र ४.६२ आदि; ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ६-७ ।
९. कल्पसूत्र ४.५८; ज्ञातृधर्मकथा, वही । तथा देखिए उदान की परमत्थदीपनी टीका, पृ० १०२ ।
१०. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० १९ ।
११. राजप्रश्नीय ९४, पृ० १५० ।