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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ च० खण्ड
खम्भों में सुंदर पुत्तलिकाएं ( शालभंजिकाएं), स्तूपिकाएं, सर्वोच्च शिखर (विडंक = विटंक = कपोतपाली = कबूतरों के रहने की छतरी), गवाक्ष (जाल), अर्धचन्द्र के आकारवाले सोपान', खूंटी ( णिज्जूह ), झरोखे ( कणयालि ) और अट्टालिका ( चंदसालिया) बनी हुई थी । वासगृह खनिज पदार्थों के रंगों से पुता हुआ था और बाहर सफेद चूने से पोता गया ( दूमिय ) था । अन्दर के भाग में सुन्दर चित्रकारी हो रही थी, और इसका फर्श ( कोट्टिमतल ) अनेक प्रकार के रंगीन
और रत्नों से जटित था । इसकी छत ( उल्लोय) पद्मलता, पुष्पल्ल और श्रेष्ठ पुष्पों से शोभित थी । इसके द्वार कनक कलशों से रमणीय थे जिनमें सुन्दर कमल शोभायमान हो रहे थे। ये प्रतर्द कां ( गोल पत्राकार आभूषण ) से रम्य थे और इन पर मणिमुक्ताओं की मालाएं लटक रही थीं । कर्पूर, लवंग, चंदन, अगर, कुंदुरुक्क, तुरुष्क और धूप से यह वासगृह महक रहा था, तथा उपधान ( तकिये ) और श्वेत रजस्त्राण वाली शय्या से अत्यन्त रमणीय जान पड़ता था । प्रासाद- निर्माण
धनी और सम्पन्न लोगों के लिए ऊंचे प्रासाद ( अवतंसक ) बनाये जाते थे । सा तवा प्रासादों का उल्लेख किया गया है । प्रासादों के शिखर गगन-तल को स्पर्श करते थे, अपनी श्वेत प्रभासे वे हंसते से जान पड़ते थे, तथा मणि, कनक और रत्नों से निर्मित होने के कारण बड़े चित्र-विचित्र मालूम होते थे । उनके ऊपर वायु से चंचल पताका फहरा रही थी तथा छत्र और अतिछत्र से वे अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे । प्रासादों के स्कंध, स्तंभ, मंच, माल और तल ( हर्म्य तल ) का उल्लेख किया गया है।' राजगृह अपने पत्थर और ईंटों (काणिट्ट ) के भवनों के लिए विख्यात था ।
भरत चक्रवर्ती का प्रासाद अपने आदर्शगृह ( सोसमहल ) के लिए
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१. निशीथचूर्णी में सोपान को पदमार्ग कहा गया है । ये दो प्रकार से बनाये जाते थे—भूमि को खोदकर और इंट-पत्थर आदि को चिनकर १.६२० ।
२. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ३–४ |
३. उत्तराध्ययनटीका १३, पृ० १८९ ।
४. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० २२ ।
५. आचारांग २, १.७.२६० । ६. बृहत्कल्पभाष्य ३.४७६८ ।