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च० खण्ड ] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान पर उस पर प्रासाद खड़ा किया जाता ।' गृहमुख में कोष्ठ, सुविधि (चौंतरा), तथा मंडपस्थान (आँगन), गृहद्वार और शौचगृह (वञ्च) बनवाये जाते।
वास्तु तीन प्रकार का बताया गया है :-खात (भूमिगृह), ऊसिय ( उच्छ्रित; प्रासाद आदि ), और उभय (भूमिगृह से सम्बद्ध प्रासाद आदि)। राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के विमान ( प्रासाद ) का वर्णन किया गया है, जिससे पता लगता है कि वास्तुविद्या उन दिनों पर्याप्त रूप से विकसित हो चुकी थी। यह विमान चारों ओर से प्राकार (दुर्ग) से वेष्टित था जो सुन्दर कपिशीर्षकों ( कंगूरों) से अलंकृत था । उसके चारों ओर द्वार बने हुए थे, जो ईहामृग, वृषभ, नरतुरग (मनुष्य के सिरवाला घोड़ा), मगर, विहग (पक्षी), सर्प, किन्नर, रुरु (हरिण ), शरभ, चमर, कुंजर, धनलता और पद्मलता की आकृतियां से शोभित शिखर (भिया) से अलंकृत थे । उनके ऊपर विद्याधर-युगल की आकृति वाली वेदिकाएँ बनी हुई थीं। ये द्वार उत्तरण (णिम्म)', नींव (पइट्ठाण), खम्भे, देहली (एलुया), इन्द्रकील, द्वारशाखा (चेडा), उत्तरंग (द्वार के ऊपर का काष्ठ ), सूची (दो तख्तों को जोड़नेवाली कील), संधि (संधान), समुद्गक (सूचिकागृह), अर्गला (किवाड़ों में लगाने का मूसल), अर्गलप्रासाद
१. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका ३३१-३३; तुलना कीलिए मिलिंदप्रश्न, पृ० ३३१, ३४५।
२. निशीथचूर्णी ३.१५३४-३५ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.८२७ । प्रासादभूमि को डायाल कहा है, निशीथचूर्णी १.६३१ ।
४. इसका सिंहल के चित्रकारों ने उल्लेख किया है। किन्नर ऊपर से मनुष्यों के समान और नीचे से पक्षियों के समान होते हैं, देखिए ए० के० कुमारस्वामी, मैडिवल सिंहलीज आर्ट, पृ० ८१ आदि।
५. नेमा नाम द्वाराणां भूमिभागाद् ऊध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः, राजप्रश्नीयटीका ।
६. प्रतिष्ठानामि मूलपादाः वही। :७. सूचिकागृहाणि, वही। . ८. यत्र अर्गलाः नियम्यन्ते, वही ।