________________
३१८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड थी । फुड़िया होने पर, उसकी जलन मिटाने के लिए मिट्टी का सिंचन किया जाता था। वमन करने के लिए मक्खी की विष्टा का, और आंख का कचरा निकालने के लिए अश्वमक्षिका का उपयोग किया जाता था। औषधियां रखने के लिये शंख और सोपी आदि काम में ली जाती थीं। श्लेष्म की बीमारी में सूंठ का उपयोग किया जाता था। औषधियों की मात्रा का ध्यान रक्खा जाता था।'
. अस्पताल अस्पतालों ( तेगिच्छयसाला = चिकित्साशाला ) का उल्लेख मिलता है। यहाँ वेतनभोगी अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, कुशल
और कुशलपुत्र आदि व्याधिग्रस्तों, ग्लानी, रोगियों और दुर्बलों की, विविध प्रकार की औषधियों, और भेषज्य आदि से चिकित्सा किया करते थे।
(४) धनुर्विद्या धनुर्वेद को छठा वेद स्वीकार किया गया है। प्राचीन भारत में यह विद्या उन्नति के शिखर पर थो, और शूरवीरता का इससे सम्बन्ध था। धनुर्वेद और इध्वस्त्र की गणना ७२ कलाओं में की गयी है। शिकारियों का उल्लेख किया जा चुका है जो हाथ में धनुष-बाण लिए अपने शिकार को खोज में इधर-उधर फिरा करते थे। धनुर्वेदी अपने हाथ में धनुष लेता, निशाना लगाने के लिए उचित स्थान पर खड़ा होता, धनुष को डोरो को कानों तक खोंचता और फिर तीर छोड़ देता । धणुपिट्ट ( धनुष का पृष्ठ भाग ), जीवा (धनुष की डोरी), हारु ( स्नायु ), उसु (इषु = बाण) और आरामुह ( नुकोले लोहेवाला तोर) का उल्लेख मिलता है।
१. ओघनियुक्ति, ३४१, पृ० १२९-अ । २. वही, ३६७, पृ० १३४-अ । ३. वही, ३६६ । ४. आवश्यकचूर्णी पृ० ४०५ । ५. वृहत्कल्पभाष्यपीठिका २८९ । ६. ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ० १४३ ।
७. धनुर्मह का उल्लेख भास ने किया है, देखिए डॉक्टर ए० डी० पुसालकर, भास-ए स्टडी, पृ० ४४० आदि ।
८. व्याख्याप्रज्ञप्ति ५.६, पृ० २२९ । ९. उत्तराध्ययनटीका ४, पृ० ८९ ।