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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ च० खण्ड
कला है जिसका उद्देश्य है मार्ग और साधनों का दिग्दर्शन कराकर, स्वास्थ्य की रक्षा करना, तथा जीवन को सुखी और परोपकारी बनाना । ' आयुर्वेद (अथवा तेगिच्छ = चैकित्स्य ) को नौ पापश्रतों में गिना गया है । धन्वन्तरी इस शास्त्र के प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने विभंगज्ञान से रोगों का पता लगाकर वैद्यकशास्त्र की रचना की, और जिन लोगों ने इस शास्त्र का अध्ययन किया वे महावैद्य कहलाये । वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात से होने वाले रोगों का उल्लेख मिलता है । आयुर्वेद की आठ शाखाएँ मानो गयी हैं :- कौमारभृत्य (बालकों के स्तनपान सम्बन्धी रोगों का इलाज ), शालाक्य ( श्रवण आदि ' शरीर के ऊर्ध्वभाग के रोगों का इलाज ), शाल्यहत्य ( तृण, काष्ठ पाषाण, लोहा, अस्थि, नख आदि शल्यों का उद्धरण), कायचिकित्सा ( ज्वर, अतिसार आदि का उपशमन ), जांगुल ( विषवातक तन्त्र ), भूतविद्या ( भूतों के निग्रह की विद्या), रसायन ( आयु, बुद्धि आदि बढ़ाने का तन्त्र) और बाजीकरण ( वीर्यवर्धक औषधियों का शास्त्र ) |"
वैद्यकशास्त्र के पंडित को दृष्टपाठी कहा गया है । वैद्य अपनेअपने घरों से शस्त्रकोश लेकर निकलते थे, और रोग का निदान जानकर अभ्यंग, उबटन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, अवदहन (गर्म
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१. आयुर्वेद को वेदाध्ययन की अपेक्षा भी विशिष्ट कहा है । वेदाध्ययन से केवल स्वर्ग प्राप्ति आदि पारलौकिक श्रेय ही मिलता है, जब कि आयुर्वेद से धन-मान आदि सांसारिक सुख तथा रोगियों को जीवन-दान करने से पारलौकिक सुख भी प्राप्त होता है, भास्कर गोविन्द घाणेकर, सुश्रुतसंहिता, भाग १, सूत्रस्थान १.१.४, पृ० ३ ।
२. सुश्रुत १. १.१.१८ के अनुसार, सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने इसका प्ररूपण किया | उनसे दक्ष प्रजापति ने, दक्ष प्रजापति से अश्विनीकुमार ने, अश्विनीकुमार से इन्द्र ने और इन्द्र से धन्वंतरीजी ने अध्ययन किया ।
३. निशीथचूर्णी, १५, पृ० ५१२ ।
४. आवश्यकचूर्णी पृ० ३८५ । तथा देखिये बृहत्कल्पभाष्य ३.
४४०८-१० ।
५. स्थानांग ८, पृ० ४०४ - अ विपाकसूत्र ७, पृ० ४१ | देखिए सुश्रुतसंहिता १.८, पृ० ४ आदि ।
६. निशीथचूर्णी ४.१७५७ ।