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________________ च० खण्ड ] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान ३०५ उन्होंने अलग से विवेचन नहीं किया । उन्होंने अपने प्राकृतव्याकरण में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, और अप्रभ्रंश भाषाओं के हो नियम दिये हैं, अर्धमागधी अथवा आर्य प्राकृत के नहीं । हरिभद्रसूरि ने जैन आगमों को भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत कहा है |' मार्कण्डेय के मतानुसार, शौरसेनी के समीप होने से, मागधी को ही अर्धमागधी कहा जाता है। देखा जाय तो अर्धमागधी का यह लक्षण उचित मालूम देता है । यह भाषा शुद्ध मागधी नहीं थी, तथा पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसे अर्धमागधी कहा जाता था । ( २ ) गणित और ज्योतिष जैन आचार्यों ने गणित और ज्योतिषविद्या में आश्चर्यजनक प्रगति की थी । जैन आगमों के अन्तर्गत उपांगों में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का इस दृष्टि से विशेष महत्व है । चन्द्रप्रज्ञप्ति का वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति के वर्णन से मिलता-जुलता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में दो सूर्यो का उल्लेख है ।" जब सूर्य दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्व दिशाओं में भ्रमण करता है तो मेरु के दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्ववर्ती प्रदेशों में दिन होता १. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थे तत्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः स्मृतः ॥ - दशवैकालिकवृत्ति, पृ० २०३ । २. शौरसेन्या अदूरत्वादियमेवार्धमागधी प्राकृतप्रकाश १२.३८ । तुलना कीजिए क्रमदीश्वर के संक्षिप्तसार ५ ९८ से जहां अर्धमागधी को महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण बताया है । ३. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० १६ - २०, बेचर - दास, अर्धमागधी भाषा, पुरातत्व, ३ ४ पृ० ३४६, अहमदाबाद ; गुजराती भाषा नी उत्क्रांति, पृ० १०७ - २०, बम्बई, १९४३; बी० वी० वापट, इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टर्ली, १९२८, पृ० २३; ए० बी० कीथ, द होम ऑव पालि, बुद्धिस्ट स्टडीज़, पृ० ७२८ आदि । ४. भास्कर ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि और ब्रह्मगुप्त ने अपने स्फुटसिद्धांत दो सूर्य और दो चन्द्र की मान्यता का खंडन किया है । किन्तु डाक्टर थीबो ने बताया है कि ग्रीक लोगों के भारत में आने के पूर्व जैनों का उक्त सिद्धांत जिल्द सर्वमान्य था, देखिए जरनल ऑव द एशियाटिक सोसाइटी ऑव बंगाल, ४९, पृ० १०७ आदि, १८१ आदि, 'आन द सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक लेख । २० जै० भा०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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