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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड है, सब भाषाओं में अपना परिणाम दिखातो है, सब प्रकार से पूर्ण है और जिसके द्वारा सब कुछ जाना और समझा जा सकता है।' इससे सिद्ध होता है कि जैसे बौद्धों ने मागधी भाषा को सब भाषाओं का मूल माना है, वैसे ही जैनों ने अर्धमागधी को, अथवा वैयाकरणों ने आर्य भाषा को मूल भाषा स्वीकार किया है । अर्धमागधी जैन आगमों की भाषा है, नाटकों में इसका प्रयोग नहीं हुआ । ध्वनि तत्त्व की अपेक्षा अर्धमागधी पालि से बाद की है, फिर भी शब्दावलावाक्य-रचना और शैली की दृष्टि से प्राचीनतम जैनसूत्रोंकी यह भाषा पालि के बहुत निकट है। जर्मन विद्वान् रिचार्ड पिशल ने अर्धमागधी के अनेक प्राचीन रूपों का उल्लेख किया है। ___ भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, वाह्रीका
और दाक्षिणात्या के साथ अर्धमागधी को सात प्राचीन भाषाओं में गिनाया है। निशीथचूर्णी में मगध के आधे भाग में बोली जानेवाली, अथवा अठारह देशी भाषाओं से नियत भाषा को अर्धमागधी कहा है ।" नवांगी टीकाकार अभयदेव के अनुसार, इस भाषा में कुछ लक्षण मागधी के और कुछ प्राकृत के पाये जाने के कारण इसे अर्धमागधी कहा है। ___आचार्य हेमचन्द्र ने यद्यपि जैनआगमों के प्राचीन सूत्रों को अर्धमागधी में लिखे हुए बताया है, लेकिन अर्धमागधी के नियमों का
१. अलंकारतिलक १.१ । २. हेमचन्द्र जोशी द्वारा अनूदित प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ० ३३ । ३. १७.४८ ।
४. मगध, मालव, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, द्रविड़, गौड़, विदर्भ आदि देशों की भाषाओं को देशी भाषा कहा है, बृहत्कल्पभाष्य १.१२३१ की वृत्ति । उद्योतनसूरि की कुवलयमाला में गोल्ल, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिंधु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्णाटक, ताइय ( ताजिक ), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र देशों की भाषाओं का देशी भाषा के रूप में उल्लेख किया है। इन भाषाओं के उदाहरण भी दिये गये हैं, जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४२७-२८ ।
५. मगहद्धविसयभासानिबद्धं अद्धभागहं, अहवा अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागह, ११.३६१८ चूर्णी ।
६. व्याख्याप्रज्ञप्ति ५.४ पृ० २२१; औपपातिकसूत्रटीका ३४, पृ० १४८ । ७. पोराणमद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं, प्राकृतव्याकरण, ८.४.२८७ वृत्ति।