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२९८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड
१२-वास्तकला में वास्तविद्या, स्कंधावारमान ( सेना के परिमाण का ज्ञान ) और नगरमान का अन्तर्भाव होता है।
१३-युद्धविद्या में युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध, दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध, लतायुद्ध, ईसत्थ (इष्वस्त्र = बाणों और अस्त्रों का ज्ञान ), छरुप्पवाय (त्सरुप्रवाद-खड्गविद्या ), धनुर्वेद, व्यूह, प्रतिव्यूह, चक्रव्यूह गरुड़व्यूह और शकटव्यूह का अन्तर्भाव होता है।'
विद्या के केन्द्र प्राचीन भारत में राजधानियां, तीर्थस्थान और मठ-मंदिर शिक्षा के केन्द्र थे । राजा-महाराजा तथा सामन्त लोग, साधारणतया, विद्याकेन्द्रों के आश्रयदाता होते थे। समृद्ध राज्यों की राजधानियों में दूर-दूर के विद्वान् लोग आकर बसते, और ये राजधानियां विद्या-केन्द्र बन जाती थीं। वाराणसी शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। शंखपुर का निवासी राजकुमार अगडदत्त विद्याध्ययन के लिए बाराणसो गया,
और वहां अपने उपाध्याय के घर रहकर उसने शिक्षा प्राप्त की, इसका उल्लेख पहले आ चुका है। श्रावस्ती शिक्षा का दूसरा केन्द्र था। पाटलिपुत्र भी लोग विद्याध्ययन के लिए जाते थे। दक्षिण में प्रतिष्ठान विद्या का बड़ा केन्द्र था। तक्षशिला का उल्लेख बौद्ध-काल में अनेक स्थानों पर मिलता है; जैनसूत्रों में इसका उल्लेख नहीं आता ।। ___ साधु और साध्वियों के उपाश्रय और वसति-स्थानों में भी हिस्ट्री ऑव हिन्दू केमिस्ट्री, भाग १, कलकत्ता, १९०४, पृ० ६२ । तथा तुलना कीजिए दशकुमारचरित, २, पृ० ६६, काले का संस्करण, १९२५ ।
१. हत्थि, अस्स, रथ, धनु, छरु, मुद्दा, गणन, संखाण, लेखा, कावेय्य, लोकायत और खत्तविज नाम के बारह शिल्यों के लिए देखिए उदान की परमत्थदीपनी नाम की अटकथा, पृ० २०५ । जैनों की ७२ कलाओं और कामशास्त्र (१.३) में उल्लिखित ६४ कलाओं की तुलना के लिए देखिए बेचरदास, भगवान महावीर नी धमकथाओ, पृ० १९३ आदि । तथा देखिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका, (२, पृ० १३९ आदि) स्त्रियों की ६४ कलाओं के लिए; तथा डाक्टर वेंकट सुन्विहा, कलाज़, जनरल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी, १९१४ ।
२. कल्पसूत्रटीका, ४, पृ० ९०-अ । तथा देखिए डी०सी० दासगुप्त, वही, पृ० २० आदि । जातक ग्रन्थों में बौद्ध शिक्षाप्रणाली के लिए देखिए डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी का बुद्धिस्ट स्टडीज़, पृ० २३६ आदि पर लेख ।