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च० खण्ड] चौथा अध्याय : शिक्षा और विद्याभ्यास २९९ उपाध्यायों के द्वारा परम्परागत शास्त्रों की शिक्षा देने के साथ-साथ शब्द, हेतुशास्त्र, छेदसूत्र, दर्शन, श्रृंगारकाव्य और निमित्तविद्या आदि सिखाये जाते थे। श्रमणों के संघों को चलती-फिरती पाठशालाएँ हो समझना चाहिए । विद्या के विभिन्न क्षेत्रों में शास्त्रार्थ और वाद-विवादों द्वारा सत्य और सम्यगज्ञान को आगे बढ़ाना, श्रमणों की शैक्षणिक
और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को आश्चर्यजनक विशेषता थी। वाद-पुरुष अपनी-अपनी स्थलियों और सभाओं में बैठकर दर्शनशास्त्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चाएँ किया करते थे। जैन भिक्षुओं और रक्तपटों (बौद्धों) में इस प्रकार के सार्वजनिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे। यदि कोई जैन भिक्षु स्वसिद्धांत का प्रतिपादन करने में पूर्णरूप से समर्थ न होता तो उसे दूसरे गण में जाकर तर्कशास्त्र अध्ययन करने के लिए कहा जाता। तत्पश्चात् राजा और महाजनों के समक्ष परतीर्थिकों को निरुत्तर करके भिक्षु वाद में जय प्राप्त करता ।' कोई परिव्राजक अपने पेट को लोहपट्ट से बांधकर और हाथ में जम्बू वृक्ष को शाखा लेकर परिभ्रमण करता था। प्रश्न करने पर वह उत्तर देता-"ज्ञान से मेरा पेट फट रहा है, इसलिए मैंने पेट पर लोहे का पट्टा बांधा है, और इस जम्बूद्वीप में मेरा कोई प्रतिवादी नहीं, इसलिए मैंने जम्बू की शाखा ग्रहण को है”।
धर्म और नीतिशास्त्र के कथाकारों में काथिकों का नाम उल्लेखनीय है। ये लोग तरंगवती, मलयवती आदि आख्यायिकाओं, धर्ताख्यान आदि आख्यानकों, गीतपद, श्रृंगारकाव्य, वसुदेवचरित
और चेटककथा आदि कथाओं तथा धर्म, अर्थ और काम संबंधी कथाओं आदि का प्रतिपादन कर निम्न वर्ग के लोगों में घम-घूमकर धर्म और दर्शन का प्रचार करते थे।
१. बृहत्कल्पभाष्य ४.५१७९, ५४२६-५४३१, व्यवहारभाष्य १, पृ० ५७-अ आदि।
२. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ७२ । तुलना कीजिए सुत्तनिपात की अहकथा २, पृ० ५३८ आदि; चुल्लकालिंग जातक (३०१), ३, पृ० १७२ आदि ।
३. वृहत्कल्पभाष्य १.२५६४ ।