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च० खण्ड ]
चौथा अध्याय : शिक्षा और विद्याभ्यास
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विलेपन और भोजन जिसमें अन्नविधि ( पाकविद्या), पानविधि, वस्त्रविधि, विलेपनविधि, शयनविधि, हिरण्ययुक्ति, सुवर्णयुक्ति, आभरणविधि, चूर्णयुक्ति, ' तरुणीप्रतिकर्म ( युवतियों के वर्ण परिवर्तन आदि का परिज्ञान ), पत्रच्छेद्य ( पत्रच्छेदन में हस्तलाघव ), और कटच्छेद्य ( बीच में अंतर वाली तथा एक हार में रहने वाली वस्तुओं के क्रमवार छेदन का ज्ञान ) का अन्तर्भाव होता है ।
८ -- विविध प्रकार के लक्षण और चिह्न आदि का ज्ञान जिसमें पुरुष, स्त्री, हय, गज, गाय, कुक्कुट, छत्र, दण्ड, असि, मणि और काकणी' के लक्षणों का अन्तर्भाव होता है ।
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९ - शकुनविद्या में शकुनरुत ( पक्षियों के शब्द का ज्ञान ) का अन्तर्भाव होता है ।
१० – ज्योतिषविद्या में चार ( गृहों को अनुकूल गति का ज्ञान ) और प्रतिचार ( ग्रहों की प्रतिकूल गति का ज्ञान ) का अन्तर्भाव होता है ।
११ - रसायनविद्या में सुवर्णपाक ( सोना बनाने की विद्या ), हिरण्यपाक, सजीव (मृत धातुओं को सहज रूप में लाने का ज्ञान ) और निर्जीव ( सुवर्ण आदि धातुओं के मारण का ज्ञान ) का अन्तर्भाव होता है ।
१. गंधयुक्ति का उल्लेख मृच्छकटिक ८.१३ तथा ललितविस्तर ( देखिए बुलेटिन स्कूल ऑव ओरिंटिएल स्टडीज़, जिल्द ६, पृ० ५१५-१७ में ई० जी० थॉमस का लेख ) में मिलता है ।
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२. कुट्टिनीमत ( श्लोक २३६ ) तथा कादम्बरी ( वही ) में पत्रच्छेद्य का उल्लेख है | काले के अनुसार, यह भित्ति अथवा भूमि पर बनाई हुई चित्रकला थी, जब कि कॉवेल का मानना है कि यह पत्रों के छेदन की विद्या थी, देखिए ई० जी० थॉमस का उपर्युक्त लेख ।
३. वराहमिहिर की बृहत्संहिता के ६७, ६५, ६६, ६०, ६२, ७२, ४९ और ७९ वें अध्यायों में क्रमशः पुरुष, हय, गज, गाय, कुक्कुट, छत्र, असि, मणि और काकिणी के लक्षणों का वर्णन है । असिलक्षण के लिए देखिए असिलक्खण जातक ( १२६ ), १ पृ० ६५ ।
४. बृहत्संहिता के ८७ वें अध्याय में इसका वर्णन है । मूलसर्वास्तिवाद के विनयवस्तु पृ० ३२ में भी सर्वभूतरुत का उल्लेख है । शिवारुत के लिये देखिये आवश्यकचूर्णी पृ० ५६२ ।
५. चरक और सुश्रुत में धातुओं के मारण की विधि बतायी गयी है । इस विधि द्वारा धातुएं अपना वर्ण और चमक आदि खो देती थीं, पी० सी० रे,