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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
बहत्तर कलाएं
जैनसूत्रों में ७२ कलाओं का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है ।' इनमें शिल्प तथा ज्ञान-विज्ञान की परम्परागत सूची दी गयी है । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हर कोई इन सभी कलाओं में fron होता था । इन कलाओं का सम्पादन करना एक ऐसा उद्देश्य था जिसकी पूर्ति शायद ही कभी हो सकती हो । बहत्तर कलाओं का वर्गीकरण निम्न रूप में किया जा सकता है - १. लेखन और पठन-पाठन - लेख और गणित । २. काव्य जिसमें पोरकव्व (शीघ्रकवित्व), आर्या, प्रहेलिका, मागधिका, गाथा, गीत और श्लोक की रचना का अन्तर्भाव होता है । ३. रूपविद्या । ४. संगीत जिसमें नृत्य, गीत, वाद्य, स्वरगत ( षड्ज, ऋषभ आदि का ज्ञान ), पुष्करगत ( मृदंग आदि बजाने का ज्ञान ) और समताल ( गीत आदि के समताल का ज्ञान ) का अंतर्भाव होता है । ५. मिश्रित द्रव्यों के पृथककरण की विद्या-दगमट्टिय ( उदकमृत्तिका ) । ६. द्यत आदि खेल, जिसमें द्यूत जणवाय ( एक प्रकार जूआ ), पासय (पासा), अष्टापद ( चौपड़ का खेल ), सुत्तखेड' ( सूत्रखेल = डोरी टूट गयी हो या जल गयी हो, लेकिन वह टूटी या जली हुई दिखायी न दे, अथवा डोरी से खींचकर दिखाया जानेवाला पुतलियों का खेल ), वस्त्रक्रीड़ा और नालिकखेड (एक प्रकार द्यत ) का अंतर्भाव होता है । स्वास्थ्य,
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( पृ० ४९० ) के साथ जहां भारतयुद्ध और सीताहरणादि को पापकं सुतं कहा है ।
१. देखिए ज्ञाताधर्मकथा १, पृ० २१; समवायांग पृ० ७७ - अ; औपपातिकसूत्र ४० पृ० १८६; राजप्रश्नीयसूत्र २११ जम्बूद्वीपप्रज्ञतिटीका २, पृ० १३६ आदि; बेचरदास, भगवान महावीर नी धर्मकथाओ, पृ० १९३ आदि; अमूल्यचन्द्र सेन, सोशल लाइफ इन जैन लिटरेचर, कलकत्ता रिव्यू मार्च १९३३, पृ० ३६४ आदि; डी०सी० दास गुप्त, जैन सिस्टम ऑव एजूकेशन, पृ० ७४ आदि, १९४२ ; तथा देखिए कादम्बरी, पृ० १२६, काले का संस्करण; दशकुमारचरित, पृ० ६६, दिव्यावदान, पृ० ५८, १००, ३९१; ललितविस्तर, पृ० १५६ ।
२. खेल-खेल में ( वेहिं रमंतेण ) अक्षरज्ञान और गणित सिखाने का उल्लेख मिलता है, आवश्यकचूर्णी पृ० ५५३ ।
३. सूत्रक्रीड़ा का उल्लेख कुट्टिनीमत ( श्लोक १२४ ) में मिलता है ।