________________
पहला अध्याय : जैन संघ का इतिहास
मरणान्त के समय जिनकल्प धारण करते, तथा तप, सत्व, सूत्र, एक और बल नामक पांच भावनाओं से संयुक्त हो उपाश्रय में, उपाश्रय के बाहर, चौराहों पर, शून्य गृहों में और श्मशानों में ध्यानास्थित हो तप किया करते थे ।
पश्चिम बंगाल की अनार्य जातियों में पार्श्वनाथ ने निर्ग्रन्थ धर्म का प्रचार किया था । बंगाल के मानभूम सिंहभूम, लोहर्दगा (आजकल बिहार के अन्तर्गत रांची जिले में ) आदि जिलों में सराक ( श्रावक ) जाति अब भी पार्श्वनाथ की उपासक है । ये लोग जल छान कर पीते हैं और रात्रिभोजन नहीं करते । इनके जन्म-मरण सम्बन्धी कार्य उनके आचार्यों द्वारा किये जाते हैं। वीरभूम और बांकुडा जिलों की आदिवासी और अर्ध-आदिवासी जातियों में मनसा नामक सर्प देवता की पूजा प्रचलित है | बहुत संभव है कि अनार्य जाति की यह नागपूजा धरणेन्द्र के रूप में पार्श्वनाथ के मस्तक का आभूषण बन गयी हो । पार्श्वनाथ की निर्वाणभूमि पारसनाथ पहाड़ी को यहाँ की संथाल जातियां मारंगवुरु ( पहाड़ का देवता ) मानकर उसपर भैंसे की बलि चढ़ाती हैं । बंगाल में आजिमगंज, देउलभीरा ( बांकुडा ) और कांटा बेनिया ( चौबीस परगना ) सुइसा, तथा बिहार के रांची जिले में अगासिया आदि स्थानों में पार्श्वनाथ की अनेक प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं, इससे इस क्षेत्र में पार्श्वनाथ की लोकप्रियता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है ।
वर्धमान महावीर
पार्श्वनाथ के लगभग २५० वर्ष बाद वज्जी-विदेह की राजधानी वैशाली ( बाढ़, मुज़फ्फरपुर ) के उपनगर क्षत्रियकुण्डग्राम ( कुंडग्राम अथवा कुण्डपुर, आधुनिक बसुकुण्ड ) में चैत्र सुदी १३ के दिन वर्धमान का जन्म हुआ। वर्धमान ज्ञातृकुल में उत्पन्न होने के कारण ज्ञातृपुत्र और वीर होने के कारण महावीर कहे जाते थे । लिच्छवी वंश में पैदा होने के कारण वे प्रियदर्शी और सुडौल शरीर के थे । उनके पिता काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ (जो सिज्जंस = श्रेयांस अथवा जसंस= यशस्वी नाम से भी कहे जाते थे) गण राजा थे, और उनकी माता वसिष्ठगोत्रीय त्रिशला ( जो विदेहदत्ता अथवा प्रियकारिणी भी कही जातो थो) थी । '
१. श्राचारांग २,३.३६६-४०० कल्पसूत्र ५ के अनुसार महावीर ब्राह्मण