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च० खण्ड] तीसरा अध्याय : स्त्रियों की स्थिति
२७३ इनमें सबसे अधिक सम्मान योग्य वे वेश्याएँ होती जो राजा द्वारा पुरस्कृत की जाती तथा बुद्धिमान व्यक्ति जिनकी सराहना करते। __गणिका गण की सदस्य मानी जाती थी, तथा उसका रूप-लावण्य आर्थिक अथवा राजनैतिक गणों से सम्बन्धित व्यक्तियों की सर्वसाधारण सम्पति थी। प्राचीन भारत में सामान्य लोगों द्वारा गणिका आदरणीय मानी जाती थी । वात्स्यायन के अनुसार, वह सुशिक्षित और सुसंस्कृत होती तथा विविध कलाओं में पारगंत होती थी। गणिका को गणिकाओं के आचार-व्यवहार की शिक्षा दी जाती थी।
गांणकाओं की उत्पत्ति कहा जाता है कि एक बार भरत चक्रवर्ती के पास सामंत राजाओं ने उपहार स्वरूप अपनी-अपनी कन्याएँ भेजों । राजा और रानी दोनों ने उनका निरीक्षणकिया। रानी ने पूछा-"यह किसका स्कंधावार है ?” भरत ने उत्तर दिया-"सामंत राजाओं ने इन्हें मेरे लिए भेजा है।" रानी ने सोचा-"अनागत को ही चिकित्सा करना ठीक है। कौन जाने, राजा पर ये जादू न कर दें ?" यह सोचकर, रानी ने प्रासाद से गिरकर मरने की धमकी दो । भरत ने कहा-“यदि यही तुम्हारा निश्चय है तो ये मेरे घर के अन्दर प्रवेश न कर सकेंगी।" इसके पश्चात् उन कन्याओं को भरत ने गण-राजाओं को सौंप दिया । जैनों के अनुसार, गणिकाओं की उत्पत्ति को यही कथा है।"
१. पेन्ज़र, कथासरित्सागर १, एपेंडिक्स ४, पृ० १३८ आदि । तुलना कीजिए उदान की टीका परमत्थदीपनी (पृ० २८९) के साथ, जहां उसे नगरसोभिणी कहा गया है।
२. देखिए, चकलदार, स्टडीज़ इन वात्स्यायन कामसूत्र, पृ० १९९ आदि । मनुस्मृति ४.२०९ में कहा है कि गण और गणिका द्वारा दिया हुआ भोजन ब्राह्मण स्वीकार नहीं करते । तथा देखिए मूलसर्वास्तिवाद का विनयवस्तु, पृ० १७ आदि; यहां आम्रपालि को वैशाली के गण द्वारा भोग्य (गणभोग्य ) कहा गया है । आचार्य हेमचन्द्र के काव्यानुशान, विवेक, पृ० ४१८ में उल्लेख हैकलाप्रागल्भ्यधौाभ्यां गणयति कलयति गणिका ।
३. चकलदार, वही, पृ० १९८; तथा भरत, नाट्यशास्त्र, ३५: ५९-६२ । ४. आवश्यकचूर्णी पृ० २९७ । ५. वही पृ० २०२; वसुदेवहिण्डी, पृ० १०३ । १८ जै० भा०