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२७२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड तथा उत्सवों आदि के अवसर पर बिना रोक-टोक बाहर जाती । श्रेणिक आदि राजाओं का अपने अन्तःपुर को रानियों सहित महावीर के दर्शन करने जाने का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है।' राजकुमारों के महावीर भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण करते समय भी, राजा और रानी दोनों मिलकर अपने पुत्र को समर्पित करते थे। कतिपय ऐसे भी उदाहरण हैं जब स्त्रियां अपना दोहद आदि पूर्ण करने के लिए पुरुष-वेश धारण कर, कवच पहन, आयुध आदि ले, जंघाओं में घण्टियां बांध भ्रमण करती थीं।' अवसर आने पर वे युद्ध में भी सम्मिलित होती, और अपने स्वामी का वेश पहन लड़ाई में जाती। टीकाकार अभयदेव ने चौलुक्य-पुत्रियों के साहस की प्रशंसा की है जो अपने पति के मरने पर अग्नि में प्रवेश कर जाती थीं।''
गणिकाओं का स्थान वेश्यावृत्ति भारत में एक प्राचीन संस्था रही है। ऋग्वेद में नृतु शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ नर्तकी होता है। वाजसनेयी संहिता में वेश्यावृत्ति को एक पेशा स्वीकार किया गया है, तथा स्मृतिग्रंथों में इस पेशे को सम्मान के साथ नहीं देखा गया। लेकिन बौद्धों के जातकों में वेश्याओं को केवल उदार ही नहीं बताया गया, उन्हें आदर की दृष्टि से भी देखा गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार, वेश्याएँ सम्मानपूर्वक देखी जाती थीं, और वे राजा द्वारा प्रदत्त छत्र, चामर और सुवर्ण-घट को धारण करती थीं । वात्स्यायन के कामसूत्र में वेश्याओं पर छः अध्याय लिखे गये हैं। वेश्याओं को यहाँ कुंभदासी, परिचारिका, कुलटा, स्वैरिणी, नटी, शिल्पकारिका, प्रकाशविनष्टा, रूपाजीवा और गणिका इन नौ वर्गों में विभाजित किया है।
१. औपपातिक सूत्र ३३, पृ० १४४ आदि । २. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ३३ । ३. विपाकसूत्र ३, पृ० २३ । ४. व्यवहारभाष्य १, पृ० १००-अ । ५. स्थानांगटीका ४, पृ० १९९ । ६. वेदिक इण्डेक्स, १, पृ० ४५७ ।
७. याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका, पृ० २८७ में स्कंदपुराण का हवाला देते हुए वेश्याओं को पंचमा जाति कहा है-"पंचचूडा नाम काश्चनाप्सरसस्तत्संततिवेश्याख्या पंचमी जातिः।"