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च० खण्ड ]
तीसरा अध्याय : स्त्रियों की स्थिति
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रहकर, सम्यक्चारित्र का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की ।" जयन्ती, कौशाम्बी के राजा शतानीक की भगिनी थी । अमूल्य वस्त्रों का त्याग कर वह साध्वी बन गयी थी ।
विवाह
हिन्दुओं के अनुसार, विवाह स्त्री और पुरुष में केवल ठेकाभर नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक एकता है और एकता का वह पवित्र बंधन है जो दैवी विधान से सम्पन्न होता है । इस प्रकार के विवाह का एक उद्देश्य यह भी था कि वंश की बेल जारी रहे और इसके लिए यह आवश्यक था कि वर, प्राप्य उत्तम कन्या को, तथा कन्या, प्राप्य उत्तम वर को प्राप्त करे । विवाह के पश्चात् पति और पत्नी में सम्पूर्ण सामंजस्य रहना आवश्यक है ।
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विवाह की वय
जैन आगमों में विवाह के योग्य निश्चित अवस्था की जानकारी हमें नहीं मिलती । हां, इतना अवश्य कहा गया है कि वर और वधू को समान वय होना चाहिए। जान पड़ता है कि प्राचीन भारत में बड़ी अवस्था में विवाह होना हानिप्रद समझा जाता था । एक लोकश्रुति उद्घृत की गयी है कि यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो जितने उसके रुधिर के बिन्दु गिरें, उतनी ही बार उसकी माता को नरक का दुःख भोगना पड़ता है ।
विवाह के प्रकार
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जैनसूत्रों में विवाह के तीन प्रकारों का उल्लेख मिलता है - वर और कन्या दोनों पक्षों के माता-पिताओं द्वारा आयोजित विवाह, स्वयंवर विवाह तथा गांधर्व विवाह । प्रचलित विवाह दोनों पक्षों के माता-पिताओं द्वारा आयोजित किया जाता था । साधारणतया अपनी हो जाति में विवाह करने का रिवाज था । बौद्ध जातकों की भांति, जैन आगमों में भी समान स्थिति तथा समान व्यवसाय वाले लोगों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित कर, अपने वंश को शुद्ध रखने का प्रयत्न किया गया है जिससे कि निम्न जातिगत तत्त्वों के सम्मिश्रण से कुल
१. देखिए अन्तःकृद्दशा ८; कल्पसूत्र ५.१३५ ।
२. व्याख्याप्रज्ञप्ति १२.२, पृ० ५५६ ।
३. पुत्रार्था हि स्त्रियः—अर्थशास्त्र ३.२.५९.५३ । ४. पिण्डनिर्युक्तिटीका ५०९ ।